कथ्य कथानक शिल्प अरू, नहीं विषय का साथ ।।
नहीं विषय का साथ, भावहिन मुझको लगते ।
उमड़-घुमड़ कर भाव, मेघ जलहिन सा ठगते ।।
दशा देश का देख, कलम को नोच रहा हूँ ।
कहाँ मढ़ू मैं दोष, कलम ले सोच रहा हूँ ।।
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Ramesh Kumar Chauhan
विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।
Manwata kaha hai ?
AAPNI AAKHO SE DEKHO
MAI DESH KA ..
जय-जय जय गणपति, जय-जय जगपति, प्रथम पूज्य भगवंता ।
हे विद्यादाता, भाग्य विधाता, रिद्धि-सिद्धि सुखकंता।।
जय-जय गणनायक, जय वरदायक, चरण गहे सुर संता ।
भक्तन हितकारी, दण्डकधारी, , हे मद-मत्सर हंता ।।
है गज मुख पावन, शोक नशावन, दिव्य रूप इकदंता ।
है मूषक वाहन, परम सुहावन, सकल सृष्टि उपगंता ।।
हे गौरी नंदन, तुझको वंदन, टेर सुनो अब मोरी ।
जाऊँ बलिहारी, हे उपकारी, है अवलंबन तोरी ।।
-रमेश चौहान
टाॅपर बच्चे स्कूल के, नौकर हैं अधिकांश ।
पहले पुस्तक दास थे, अब मालिक के दास।।
अब मालिक के दास, शान शौकत दिखलाता ।
खुद का क्या पहचान, रौब अपना बतलाता ।।
मालिक बना रमेश, लिये शिक्षा जो सच्चे ।
सफल दिखे अधिकांश, नहीं है टाॅपर बच्चे ।।
-रमेश चौहान
आजादी रण शेष अभी है, देखो नयन उघारे ।
वैचारिक परतंत्र अभी हैं, इस पर कौन विचारे ।।
अंग्रेजी का हंटर अब तक, बारबार फुँफकारे ।
अपनी भाषा दबी हुई है, इसको कौन उबारे ।।
काँट-छाँट कर इस धरती को, दिये हमें आजादी ।
छद्म धर्मनिरपेक्ष हाथ रख, किये मात्र बर्बादी ।।
एक देश में एक रहें हम, एक धर्म अरु भाषा ।
राष्ट्रवाद का धर्म गढ़े अब, राष्ट्रवाद की भाषा ।।
धर्म व्यक्ति का अपना होवे, जात-पात भी अपना ।
देश मात्र का एक धर्म हो, ऐसा हो अब सपना ।।
-रमेश चौहान
पाप रूप कलिकाल में, छद्म वेश में लोग ।
गुरुजी बन कर लोग कुछ, बांट रहे हैं रोग ।।
चरित्र जिसके दीप्त हो, ज्यों तारों में चांद ।
गुरुवर उसको जान कर, बैठे उनके मांद ।।
मन का तम अज्ञान है, ज्योति रूप है ज्ञान ।
तम मिटते गुरु ज्योति से, कहते सकल जहान ।।
भूल भुलैया है जगत, भटके लोग मतंग ।
पथ केवल वह पात है, गुरुवर जिनके संग ।।
जीवन के हर राह पर, आते रहते मोड़ ।
लक्ष्य दिखाकर गुरु तभी, देते उलझन तोड़ ।।
रवि की गति से तेज है, मेरे मन का वेग ।
गुरुवर केवल आप ही, रोक लेत उद्वेग ।।
मैं मिट्टी हूँ चाक का, गुरुवर आप कुम्हार ।
मुझको गढ़िये कुंभ सम, अंतस हाथ सम्हार ।।
मैं नवजात अबोध हूँ, दुनिया से अनभिज्ञ ।
ज्ञान ज्योति गुरु आप हैं, सकल सृष्टि से भिज्ञ ।।
तम तामस से था भरा, खुद को ज्ञानी मान ।
कृपा दृष्टि गुरु आपका, जला दिया अभिमान ।।
अंधकार चहुँ ओर है, जाऊँ मैं किस ओर ।
मुझको राह दिखाइये, गुरुवर बन कर भोर ।
कोटि कोटि है देवता, कोटि कोटि है संत ।
केवल ईश्वर एक है, जिसका आदि न अंत ।।
पंथ प्रदर्शक गुरु सभी, कोई ईश्वर तुल्य ।
फिर भी ईश्वर भिन्न है, भिन्न भिन्न है मूल्य ।।
आँख मूंद कर बैठ जा, नही दिखेगा दीप ।
अर्थ नही इसका कभी, बूझ गया है दीप ।।
बालक एक अबोध जब, नही जानता आग ।
क्या वह इससे पालता, द्वेष या अनुराग ।।
मीठे के हर स्वाद में, निराकार है स्वाद ।
मीठाई साकार है, यही द्वैत का वाद ।।
जिसको तू है मानता, गर्व सहित तू मान ।
पर दूजे के आस को, तनिक तुच्छ ना जान ।।
कितने धार्मिक देश हैं, जिनका अपना धर्म ।
एक देश भारत यहां, जिसे धर्म पर शर्म ।।
प्रकृति और विज्ञान में, पहले आया कौन ।
खोज विज्ञान कर रहा, सत्य प्रकृति है मौन ।।
समय-समय पर रूप को, बदल लेत विज्ञान ।
कणिका तरंग जान कर, मिला द्वैत का ज्ञान ।।
सभी खोज का क्रम है, अटल नही है एक ।
पहले रवि था घूमता, अचर पिण्ड़ अब नेक ।।
नौ ग्रह पहले मान कर, कहते हैं अब आठ ।
रंग बदल गिरगिट सदृश, दिखा रहे हैं ठाठ ।।
जीव जन्म लेते यथा, आते नूतन ज्ञान ।
यथा देह नश्वर जगत, नश्वर है विज्ञान ।।
सेवक है विज्ञान तो, इसे न मालिक मान ।
साचा साचा सत्य है, प्रकृति पुरुष भगवान ।।
मदिरा पीना भी क्या पीना है
ऐसा जीना भी क्या जीना है
पीना है तो दुख पीकर देखो
फिर कहना चौड़ा यह सीना है
कैसे कह दें झूठ में, हमें न तुमसे प्यार ।
मन अहलादित है मगर, करते कुछ तकरार ।।
करते कुछ तकरार प्यार में, खुद को अजमाते ।
कितना गहरा, हृदय समुन्दर, गोता खाते ।।
ढूंढ रहा हूँ, माणिक मोती, यूँ ही ऐसे ।
मिला नही कुछ, झूठा बनने, कह दें कैसे ।।
//मैं और मजदूर//
मैं एक अदना-सा
प्रायवेट स्कूल का टिचर
और वह
श्रम साधक मजदूर ।
मैं दस बजे से पांच बजे तक
चारदीवार में कैद रहता
स्कूल जाने के पूर्व
विषय की तैयारी
स्कूल के बाद पालक संपर्क
और वह
नौ बजे से दो बजे तक
श्रम की पूजा करता
इसके पहले और बाद
दायित्व से मुक्त ।
मेरे ही स्कूल में
उनके बच्चे पढ़ते हैं
जिनका मासिक शुल्क
महिने के महिना
अपडेट रहता है
मेरे बच्चे का
मासिक शुल्क
चार माह से पेंडिग है ।
किराने के दुकान एवं राशन दुकान के
बही-खाते में मेरा नाम बना ही रहता है
शायद वह दैनिक नकद खर्च करता है
मेरे बचपन का मित्र
जो मेरे साथ पढ़ता था
आठवी भी नही पढ़ पाया
आज राजमिस्त्री होकर
चार सौ दैनिक कमा लेता है
और इतने ही दिनों में
मैं एम.ए.डिग्री माथे पर चिपका कर
महिने में पाँच हजार कमा पाता हूँ ।
//कल और आज//
कल जब मैं स्कूल में पढ़ता था,
मेरे साथ पढ़ती थी केवल एक लड़की
आज मैं स्कूल में पढ़ाते हुये पाता हूँ
कक्षा में
दस छात्र और बीस छात्रा ।
कल जब मैं शिक्षक का दायित्व सम्हाला ही था
स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम कराने हेतु
एक छात्रा को सहमत कराने में
पसीना आ जाता था
और आज एक छात्र को तैयार करने में
पसीना क्या खून जलाना पड़ रहा है ।
कल जब मेरा विवाह हुआ
मेरी इच्छा धरी रह गई
बारहवी पास लड़की से
विवाह करने की
आज मेरी लड़की एम.ए.पास है
जिनका विवाह करना पड़ा
एक बारहवी पास लड़के से ।
कल जब मैं अपने बचपने में
गाँव में नाच देखने जाया करता था
मुझे अच्छे से याद है
सौ पुरषों के मध्य
बीस महिला ही रहती थीं
आज मैं यदा-कदा नाच देखने जाता हूँ तो
महिलाओं के भीड़ में
अपने लिये स्थान भी नही बना पाता ।
कल मेरे बाल्यकाल में
मेरे घर के हर सुख-दुख के काम में
मेरे परिवार की महिलायें मिलकर
एकसाथ भोजन पकातीं
और विवाह आदि में
गढ़वा बाजा के पुरूष नर्तक
महिला वेश धारण कर नाचते
आज मैं पुरूष रसोइयो से
भोजन बनवाया
मेरी घर की महिलायें
धूमाल के साथ नाच रही हैं ।
आज सुबह-सुबह कुम्हारी में
जब मैं मार्निंगवाक पर गया
तो मैंने रास्ते में
चार पुरूष और चौदह महिला को
सैर करते हुये पाया
सैर करते-करते
कल और आज का यह दृश्य
मेरे आँखों के सामने उमड़-घुमड़ कर आता रहा ।।
-रमेश चौहान
भारत दण्ड़ विधान पर, कितनों को विश्वास ।
हाथ हृदय पर राखिये, फिर बोलें उच्चास ।
फिर बोलें उच्चास, फँसे हैं तगड़ा-तगड़ा ।
सच्चा-झूठा दोष, जहां तोड़े हैं रगड़ा ।।
कई कई निर्दोष, भोग भोगे हैं गारत ।
अपराधी कुछ खास, मुक्त घूमे हैं भारत ।।
बाधक है विकास डगर, धर्म कर्म का दास ।
धर्म कर्म के राह पर, बाधक बना विकास ।
बाधक बना विकास, अंधविश्वासी कहकर ।
बाधित हुआ विकास, ढोंग-धतुरा को सहकर ।।
भौतिकता के फेर, आज दिखते हैं साधक ।
इसिलिये तो आज, धर्म को कहते बाधक ।।
-रमेश चौहान
देर है अंधेर नहीं
जन्म से अब तक
सुनते आ रहे हैं
एक प्रश्न
छाती तान कर खड़ा है
न्याय में देरी होना क्या न्याय हैं ?
एक प्रश्न खड़ा है
आरोपियों को दोषियों की तरह
सजा क्यों दी जाती है ?
क्या सभी आरोपी दोषी सिद्ध होते है ?
यदि हां तो
वर्षों तक कोर्ट का चक्कर क्यों ?
यदि नहीं तो
आरोपी के अनमोल वर्ष जो जेल में बीते,
दुख अपमान कष्ट में बीते,
उन क्षणों का भुगतान कौन करे ?
क्या कभी
झूठे आरोप लगाने वालों को सजा हुई है ?
क्या कोई कभी
इस सिस्टम पर प्रश्न खड़ा किया है ?
क्या कोई संगठन
उन निर्दोष आरोपियों के पक्ष में
प्रदर्शन किया है ?
सभी आरोपी दोषी नहीं होते
तो क्यों
आरोपियों को दोषियों की भांति सजा दी जाती है
क्यों क्यों क्यों
आखिर क्यों ?????
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे का
संत फकीर गुरु
पैगंबर ईश्वर का
अस्तित्व है
केवल मेरी मान्यता से
जिससे जन्मी है
मेरी आस्था ।
मेरी आस्था
किसी अन्य की आस्था से
कमतर नहीं है
न हीं उनकी आस्था
मेरी आस्था से कमतर है
फिर भी लोग क्यों
दूसरों की आस्था पर चोट पहुंचाकर
खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं ।
मुझे अंधविश्वासी कहने वाले खुद
पर झांक कर देखें
कितने अंधविश्वास में स्वयं जीते हैं ।
हर सवाल के जवाब से
पैदा होता है
एक नया सवाल
जिसका जवाब
पैदा करता है
पुन:
एक नया सवाल
सवालों के जवाबों का
चल पड़ता है
लक्ष्यहीन भटकाव
इसमें ठहराव तब आता है
जब सवाल का जवाब
एक सवाल ही हो
क्योंकि
हर सवाल का जवाब
केवल
एक सवाल होता है ।
जग में जीने की कला, जग से लेंवे सीख ।
जीवन जीने की कला, मिले न मांगे भीख ।।
मिले न मांगे भीख, सफलता की वह कुंजी ।
व्यक्ति वही है सफल, स्वेद श्रम जिनकी पूंजी ।।
चलते रहो "रमेश", रक्त बहते ज्यो रग में ।
चलने का यह काम, नाम है जीवन जग में ।।
हे मातृभूमि ममता रूपा, प्रतिपल वंदन तुझको ।
सुखमय लालन-पालन करतीं, गोद बिठाकर मुझको ।
मंगलदात्री पुण्यभूमि माँ, तन-मन अर्पण तुझको ।
तेरे ही हित काज करूँ मैं, इतना बल दे मुझको ।।
हे सर्वशक्तिशाली भगवन, कोटि नमन है तुझको ।
मातृभूमि की सेवा करने, बुद्धि शक्ति दे मुझको ।।
शक्ति दीजिये इतनी भगवन, दुनिया लोहा माने ।
ज्ञान-बुद्धि जन मन में भर दें, दुनिया जिसको जाने ।।
जाति-धर्म से उपजे बाधा, देश प्रेम से टूटे ।
समरसता में गांठे जितने, देश प्रेम से छूटे ।।
भांति-भांति के अंग हमारे, जैसे देह बनावे ।
भांति-भांति के लोग यहां के, काया सा बन जावे ।।
वैभवशाली भारत होवे, अखिल विश्व से बढ़कर ।
देश भक्ति की प्रबल भावना, अब बोले सिर चढ़कर ।।
हे विधाता नही बदनला मुझे तेरा विधान,
हर दुःख- सुख में मेरा कर दे कल्याण ।
चाहे जितना कष्ट मेरे भाग्य में भर दे,
पर हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।
जो संकट आये जीवन में उनसे मैं दो दो हाथ करू,
संकट हो चाहे जितना विकट उनसे मै कभी न डरू ।
चाहे मेरे हर पथ पर कंटक बिखेर दें,
पर उन कंटकों में चलने का साहस भर दें ।
कष्टो से विचलित हो अपनी मानवता धर्म कभी न भूलू,
हर जीवो के पथ के कंटक अपनी झोली में भर लू ।
चाहे मेरे जीवन को अश्रु धारा से भर दें,
पर अश्रु सागर को पीने मुझे अगस्त-सा कर दें ।
जीवन के किसी खुशी से मैं बौराऊ न,
अपनी खुशी में किसी को सताऊ न ।
चाहे जितनी खुशियां मेरी झोली में भर दे,
पर हर खुशीयों में जीने मुझे जनक-सा कर दें ।।
..............रमेश.........................
नूतन संवत्सर उदित, उदित हुआ नव वर्ष ।
कण-कण रज-रज में भरे, नूतन-नूतन हर्ष ।।
नूतन नूतन हर्ष, शांति अरु समता लावे ।
विश्व बंधुत्व भाव, जगत भर में फैलावे ।।
नष्ट करें उन्माद, आज मिश्रित जो चिंतन ।
जागृत हो संकल्प, गढ़े जो भारत नूतन ।।
-रमेश चौहान
अटल अटल है आपका, ध्रुव तरा सा नाम । बोल रहा हर गांव में, पहुंच सड़क का काम ।। जोड़ दिए हर गांव को, मुख्य सड़क के साथ। गांव शहर से जब जुड़ा...