‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

सोच रहा हूँ क्या लिखूँ

सोच रहा हूँ क्या लिखूँ, लिये कलम मैं हाथ ।
कथ्य कथानक शिल्प अरू, नहीं विषय का साथ ।।
नहीं विषय का साथ, भावहिन मुझको लगते ।
उमड़-घुमड़ कर भाव, मेघ जलहिन सा ठगते ।।
दशा देश का देख, कलम को नोच रहा हूँ ।
कहाँ मढ़ू मैं दोष, कलम ले सोच रहा हूँ ।।

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कहते पिता रमेश

दुनियाभर की हर खुशी, तुझे मिले लोकेश ।
सुत ! सपनों का आस हो, कहते पिता रमेश ।।
कहते पिता रमेश, आदमी पहले बनना ।
धैर्य शौर्य रख साथ, संकटों पर तुम तनना ।।
देश और परिवार, प्रेम पावन अंतस भर ।
करके काम विशेष, नाम करना दुनियाभर ।।

कौन चले राम संग

सुन-सुन इसे-उसे, इहाँ-वहाँ जहाँ-तहाँ,
इधर-उधर देख, मनुवा निराश है ।
आस्था में आस्था का, राजनीति घालमेल,
आस्था ही आस्था से, आज तो हताश है ।।
वर्ष-वर्ष सालों-साल, राम वनवास हेतु
फिर से इस देश में, मंथरा तैयार है ।
कौन चले राम संग, राम को ही मानकर,
अवध के प्रजा आज, मन से बीमार है ।।
-रमेशकुमार सिंह चौहान

राम जैसा राम जग में, दूसरा ना और

राम जैसा राम जग में, दूसरा ना और ।
देश भारत देश जैसा, दूसरा ना ठौर ।।
मानते तो है जहाँ पर, राम है अवधेश ।
किन्तु खुलकर बोलते ना, वाह रे ये देश ।।


लाल हुये है नंद को

लाल हुये है नंद को, हुये नंद को लाल ।
बाजा बाजे गह गहे, नभ में उड़े गुलाल ।।

ब्रज गोकुल में आज तो, उमंग करे हिलोर ।
गली गली हर द्वार में, मचा हुआ है शोर ।।
ग्वाल संग ग्वालन हर्षित, मिला रही हैं ताल ।। लाल हुये....

गोद यशोदा हॅस रहा, गोकुल राज दुलार ।
निरख निरख मां शारदे, गाती जाज मलार ।।
नाच रहे सब देवता, कह कर जय गोपाल ।।लाल हुये....

जगत पिता धर मनुज तन, लिये आज अवतार ।
जड़ चेतन जग जीव के, जो कहाय  भरतार ।।
खुशियां तन धर नाचती, करती बहुत कमाल ।। लाल हुये....

-रमेश चौहान

जय-जय जय गणपति

जय-जय जय गणपति, जय-जय जगपति, प्रथम पूज्य भगवंता ।
हे विद्यादाता, भाग्य विधाता, रिद्धि-सिद्धि सुखकंता।।
जय-जय गणनायक, जय वरदायक, चरण गहे सुर संता ।
भक्तन हितकारी, दण्डकधारी, , हे मद-मत्सर हंता ।।

है गज मुख पावन, शोक नशावन, दिव्य रूप इकदंता ।
है मूषक वाहन, परम सुहावन, सकल सृष्टि उपगंता ।।
हे गौरी नंदन, तुझको वंदन, टेर सुनो अब मोरी ।
जाऊँ बलिहारी, हे उपकारी, है अवलंबन तोरी ।।

-रमेश चौहान

छोड़ दक्षता आज, चाहिये शिक्षा हमको ??

शिक्षा हमको चाहिये, इसमें ना मतभेद ।
शिक्षा के उद्देश्य से, मुझको होता खेद ।
मुझको होता खेद, देख कर डिग्रीधारी ।
कागज में उत्तीर्ण, ,दक्षता पीड़ाकारी ।।
सुनलों कहे "रमेश", नौकरी चाही सबको ।
छोड़ दक्षता आज, चाहिये शिक्षा हमको ।।

कुछ दोहे चिंतन के

तीन तरह के लोग हैं, एक कमाता दाम ।
एक चाहता दाम है, एक कमाता नाम ।

जला पेट के आग में, कविता का हर शब्द ।
रोजी रोटी के हेतु, कलम हुई नि:शब्द ।

जिसकी जैसी सोच हो, करते रहते काम ।
हार-जीत के बीच में, रहे सोच का नाम ।।

सुबह बचत यदि कर लिये, सुखद रहेगी शाम ।
खुद की खुद ही कर मदद, तभी चलेगा काम ।

मन तन से तो है बड़ा, मन को रखिये ठीक ।
छोड़ निराशा कर्म कर, यही बात है नीक

जोड़ो मन के तार को, मनोभाव रख एक ।
समता का ही भाव तो, मनोभाव में नेक ।।

टाॅपर बच्चे

टाॅपर बच्चे स्कूल के, नौकर हैं अधिकांश ।
पहले पुस्तक दास थे, अब मालिक के दास।।
अब मालिक के दास, शान शौकत दिखलाता ।
खुद का क्या पहचान,  रौब अपना बतलाता ।।
मालिक बना रमेश,   लिये शिक्षा जो सच्चे ।
सफल दिखे अधिकांश, नहीं है टाॅपर बच्चे ।।

-रमेश चौहान

आजादी रण शेष अभी है

आजादी रण शेष अभी है, देखो नयन उघारे ।
वैचारिक परतंत्र अभी हैं, इस पर कौन विचारे ।।

अंग्रेजी का हंटर अब तक, बारबार फुँफकारे ।
अपनी भाषा दबी हुई है, इसको कौन उबारे ।।

काँट-छाँट कर इस धरती को, दिये हमें आजादी ।
छद्म धर्मनिरपेक्ष हाथ रख, किये मात्र बर्बादी ।।

एक देश में एक रहें हम, एक धर्म अरु भाषा ।
राष्ट्रवाद का धर्म गढ़े अब, राष्ट्रवाद की भाषा ।।

धर्म व्यक्ति का अपना होवे, जात-पात भी अपना ।
देश मात्र का एक धर्म हो, ऐसा हो अब सपना ।।

-रमेश चौहान

आजादी रण शेष है

आजादी रण शेष है, हैं हम अभी गुलाम ।
आंग्ल मुगल के सोच से, करे प्रशासन काम ।।

मुगलों की भाषा लिखे, पटवारी तहसील ।
आंग्लों की भाषा रटे, अफसर सब तफसील ।।

लोकतंत्र में देश का, अपना क्या है काम ।
भाषा अरू ये कायदे, सभी शत्रु के नाम ।।

ना अपनी भाषा लिये, ना ही अपनी सोच ।
आक्रांताओं के जुठन, रखे यथा आलोच ।।

लाओं क्रांति विचार में,  बनकर तुम फौलाद ।
निज चिंतन संस्कार ही, करे हमें आजाद ।

गुरु (दोहे)

पाप रूप कलिकाल में, छद्म वेश में लोग ।
गुरुजी बन कर लोग कुछ, बांट रहे हैं रोग ।।

चरित्र जिसके दीप्त हो, ज्यों तारों में चांद ।
गुरुवर उसको जान कर, बैठे उनके मांद ।।

मन का तम अज्ञान है, ज्योति रूप है ज्ञान ।
तम मिटते गुरु ज्योति से, कहते सकल जहान ।।

भूल भुलैया है जगत, भटके लोग मतंग ।
पथ केवल वह पात है, गुरुवर जिनके संग ।।

जीवन के हर राह पर, आते रहते मोड़ ।
लक्ष्य दिखाकर गुरु तभी, देते उलझन तोड़ ।।

रवि की गति से तेज है, मेरे मन का वेग ।
गुरुवर केवल आप ही, रोक लेत उद्वेग ।।

मैं मिट्टी हूँ चाक का, गुरुवर आप कुम्हार ।
मुझको गढ़िये कुंभ सम, अंतस हाथ सम्हार ।।

मैं नवजात अबोध हूँ, दुनिया से अनभिज्ञ ।
ज्ञान ज्योति गुरु आप हैं, सकल सृष्टि से भिज्ञ ।।

तम तामस से था भरा, खुद को ज्ञानी मान ।
कृपा दृष्टि गुरु आपका, जला दिया अभिमान ।।

अंधकार चहुँ ओर है, जाऊँ मैं किस ओर ।
मुझको राह दिखाइये, गुरुवर बन कर भोर ।

जय भारती जय भारती

जय भारती जय भारती, हम तो उतारें आरती ।
हम लाल तेरे गोद के, तू हमारी माँ भारती ।।
तू वत्सला सबसे बड़ी, वात्सल्य ही तू बाँटती ।
अति सौम्य अति माधुर्य छवि, हर पीर को है छाँटती ।।

केवल ईश्वर एक है

कोटि कोटि है देवता,  कोटि कोटि है संत ।
केवल ईश्वर एक है, जिसका आदि न अंत ।।

पंथ प्रदर्शक गुरु सभी, कोई ईश्वर तुल्य ।
फिर भी ईश्वर भिन्न है, भिन्न भिन्न है मूल्य ।।

आँख मूंद कर बैठ जा, नही दिखेगा दीप ।
अर्थ नही इसका कभी, बूझ गया है दीप ।।

बालक एक अबोध जब,  नही जानता आग ।
क्या वह इससे पालता, द्वेष या अनुराग ।।

मीठे के हर स्वाद में, निराकार है स्वाद ।
मीठाई साकार  है, यही द्वैत का वाद ।।

जिसको तू है मानता, गर्व सहित तू मान ।
पर दूजे के आस को, तनिक तुच्छ ना जान ।।

कितने धार्मिक देश हैं, जिनका अपना धर्म ।
एक देश भारत यहां, जिसे धर्म पर शर्म ।।

प्रकृति और विज्ञान में, पहले आया कौन

प्रकृति और विज्ञान में, पहले आया कौन ।
खोज विज्ञान कर रहा, सत्य प्रकृति है मौन ।।

समय-समय पर रूप को, बदल लेत विज्ञान ।
कणिका तरंग  जान कर,  मिला द्वैत का ज्ञान ।।

सभी खोज का क्रम है, अटल नही है एक ।
पहले रवि था घूमता, अचर पिण्ड़ अब नेक ।।

नौ ग्रह पहले मान कर, कहते हैं अब आठ ।
रंग बदल गिरगिट सदृश, दिखा रहे हैं ठाठ ।।

जीव जन्म लेते यथा, आते नूतन ज्ञान ।
यथा देह नश्वर जगत, नश्वर है विज्ञान ।।

सेवक है विज्ञान तो, इसे न मालिक मान ।
साचा साचा सत्य है, प्रकृति पुरुष भगवान ।।

दो मुक्तक

फूलों की महक घड़ी दो घड़ी ही
ओठों की चहक घड़ी दो घड़ी ही
अक्षय रहता श्वेद, सूख कर भी
श्रम में तू दहक घड़ी दो घड़ी ही


किसी को नाम से वास्ता है
किसी को काम से वास्ता है
यहां मैं मस्त हूँ मस्ती में
मुझे तो जाम से वास्ता है

मूल्य नीति, हमें समझ ना आय

टेक्स हटाओं तेल से, सस्ता कर दो दाम ।
जोड़ो टेक्स शराब पर, चले बराबर काम ।।


अच्छे दिन के स्वप्न को, ढूंढ रहे हैं लोग ।
बढ़े महंगाई कठिन, जैसे कैंसर रोग ।।


कभी व्यपारी आंग्ल के, लूट लिये थे देश ।
आज व्यपारी देश के, बांट रहे हैं क्लेश ।।


तने व्यपारी आन पर, विवश दिखे सरकार ।
कल का हो या आज का, सब दल है लाचार ।।


मूल्य नीति व्यवसाय की, हमें समझ ना आय ।
दस रूपये के माल को, सौं में बेचा जाय ।।


निर्भरता व्यवसाय पर, प्रतिदिन बढ़ती जाय ।
ये उपभोक्ता वाद ही, भौतिकता सिरजाय ।।

मदिरा पीना क्या पीना है

मदिरा पीना भी क्या पीना है
ऐसा  जीना भी क्या जीना है
पीना है तो दुख पीकर देखो
फिर कहना चौड़ा यह सीना है

माँ

माँ, माँ ही रहती सदा, पूत रहे ना पूत ।
नन्हे बालक जब बढ़े, माँ को समझे छूत ।।
माँ को समझे छूत, जवानी ज्यों-ज्यों आये ।
प्रेम-प्यार के नाम, प्यार माँ का बिसराये ।।
माने बात ‘रमेश‘, पत्नि जो जो अब कहती ।
बचपन जैसे कहाँ, आज माँ, माँ ही रहती ।।

ऐसी शिक्षा नीति

हमको तो अब चाहिये, ऐसी शिक्षा नीति ।
राष्ट्र प्रेम संस्कार का, जो समझे हर रीति ।।
जो समझे हर रीति, आत्म बल कैसे देते ।
कैसे शिक्षित लोग, सफल जीवन कर लेते ।
शिक्षा का आधार, हरे जीवन के गम को ।
कागज लिखे प्रमाण, चाहिये ना अब हमको ।।

मन में एक सवाल है

मन में एक सवाल है, उत्तर की दरकार ।
आखिर कब से देश में, पनपा भ्रष्टाचार ।।
पनपा भ्रष्टाचार, किये नेता अधिकारी ।
एक अँगूठा छाप, दिखे क्या भ्रष्टाचारी ।।
शिक्षित लोग "रमेश",  इसे फैलाये जन में ।
कैसी शिक्षा नीति, सोच कर देखें मन में ।।

शिक्षा में संस्कार हो

शिक्षा में संस्कार हो, कहते हैं सब लोग ।
शिक्षा में व्यवहार का, निश्चित हो संजोग ।
निश्चित हो संजोग, समझ जीवन जीने का ।
सहन शक्ति हो खास, कष्ट प्याला पीने का ।
पर दिखता है भिन्न, स्कूल के इस दीक्षा में ।
टूट रहा परिवार, आज के इस शिक्षा में ।।

कैसे कह दें

कैसे कह दें झूठ में, हमें न तुमसे प्यार ।
मन अहलादित है मगर, करते कुछ तकरार ।
करते कुछ तकरार प्यार में, खुद को अजमाते ।
कितना गहरा, हृदय समुन्दर, गोता खाते ।।
ढूंढ रहा हूँ, माणिक मोती, यूँ ही ऐसे ।
मिला नही कुछ, झूठा बनने, कह दें कैसे ।।

मैं और मजदूर

//मैं और मजदूर//

मैं एक अदना-सा
प्रायवेट स्कूल का टिचर
और वह
श्रम साधक मजदूर ।

मैं दस बजे से पांच बजे तक
चारदीवार में कैद रहता
स्कूल जाने के पूर्व
विषय की तैयारी
स्कूल के बाद पालक संपर्क
और वह
नौ बजे से दो बजे तक
श्रम की पूजा करता
इसके पहले और बाद
दायित्व से मुक्त ।

मेरे ही स्कूल में
उनके बच्चे पढ़ते हैं
जिनका मासिक शुल्क
महिने के महिना
अपडेट रहता है
मेरे बच्चे का
मासिक शुल्क
चार माह से पेंडिग है ।

किराने के दुकान एवं राशन दुकान के
बही-खाते में मेरा नाम बना ही रहता है
शायद वह दैनिक नकद खर्च करता है

मेरे बचपन का मित्र
जो मेरे साथ पढ़ता था
आठवी भी नही पढ़ पाया
आज राजमिस्त्री होकर
चार सौ दैनिक कमा लेता है
और इतने ही दिनों में
मैं एम.ए.डिग्री माथे पर चिपका कर
महिने में पाँच हजार कमा पाता हूँ ।

कल और आज

//कल और आज//

कल जब मैं स्कूल में पढ़ता था,
मेरे साथ पढ़ती थी केवल एक लड़की
आज मैं स्कूल में पढ़ाते हुये पाता हूँ
कक्षा में
दस छात्र और बीस छात्रा ।

कल जब मैं शिक्षक का दायित्व सम्हाला ही था
स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम कराने हेतु
एक छात्रा को सहमत कराने में
पसीना आ जाता था
और आज एक छात्र को तैयार करने में
पसीना क्या खून जलाना पड़ रहा है ।

कल जब मेरा विवाह हुआ
मेरी  इच्छा धरी रह गई
बारहवी पास लड़की से
विवाह करने की
आज मेरी लड़की एम.ए.पास है
जिनका विवाह करना पड़ा
एक बारहवी पास लड़के से ।

कल जब मैं अपने बचपने में
गाँव में नाच देखने जाया करता था
मुझे अच्छे से याद है
सौ पुरषों के मध्य
बीस महिला ही रहती थीं
आज मैं यदा-कदा नाच देखने जाता हूँ तो
महिलाओं के भीड़ में
अपने लिये स्थान भी नही बना पाता ।

कल मेरे बाल्यकाल में
मेरे घर के हर  सुख-दुख के काम में
मेरे परिवार की महिलायें मिलकर
एकसाथ भोजन पकातीं
और विवाह आदि में
गढ़वा बाजा के पुरूष नर्तक
महिला वेश धारण कर नाचते
आज मैं पुरूष रसोइयो से
भोजन बनवाया
मेरी घर की महिलायें
धूमाल के साथ नाच रही हैं ।

आज सुबह-सुबह कुम्हारी में
जब मैं मार्निंगवाक पर गया
तो मैंने रास्ते में
चार पुरूष और चौदह महिला को
सैर करते हुये पाया
सैर करते-करते
कल और आज का यह दृश्य
मेरे आँखों के सामने उमड़-घुमड़ कर आता रहा ।।

-रमेश चौहान

भारत दण्ड़ विधान

भारत दण्ड़ विधान पर, कितनों को विश्वास ।
हाथ हृदय पर राखिये, फिर बोलें उच्चास ।
फिर बोलें उच्चास, फँसे हैं तगड़ा-तगड़ा ।
सच्चा-झूठा दोष, जहां तोड़े हैं रगड़ा  ।।
कई कई निर्दोष, भोग भोगे हैं गारत ।
अपराधी कुछ खास, मुक्त घूमे हैं भारत ।।

बाधक

बाधक है विकास डगर, धर्म कर्म का दास ।
धर्म कर्म के राह पर, बाधक बना विकास ।
बाधक बना विकास, अंधविश्वासी कहकर ।
बाधित हुआ विकास, ढोंग-धतुरा को सहकर ।।
भौतिकता के फेर, आज दिखते हैं साधक ।
इसिलिये तो आज, धर्म को कहते बाधक ।।
-रमेश चौहान

हां हां फांसी होना ही चाहिए

आज सुबह सुबह
अखबार की सुर्खियां देखकर
मेरे दादाजी
क्रोध से लाल होकर
अट्ठास करने लगे
बलात्कारियों को फांसी
हां हां बलात्कारियों को फांसी
होना ही चाहिए
केवल मासूमों के बलात्कारियों को ही क्यों
सभी बलात्कारियों को फांसी  होना चाहिए
हां हां फांसी होना चाहिए
झूठे आरोप लगाने वाले को
जो दुश्मनी भांजने के लिए
किसी पर भी बलात्कार का आरोप मढ़ते हैं
जो प्यार की नाटक में बंध कर
स्वयं अंगीभूत होकर भी
बलात्कार का आरोप मढ़ते हैं
हां हां फांसी होना चाहिए
बलात्कार को प्रेरित करने वाले कारकों को
पैदा करने वालो को
अश्लील वेबसाइट चलाने वालों को
अश्लील गीत गाने वालों को
अश्लील गीत लिखने वालों को
अश्लील डांस दिखाने वालों को
प्यार के नाम पर सेक्स करने वालों को
हां हां फांसी होना चाहिए
विवाह पूर्व संबंध बनाने वालों को
हां हां निश्चित फांसी होना ही चाहिए
अपने जीवनसाथी को छोड़
किसी अन्य के साथ संबंध बनाने वालों को

आखिर क्यों ??

देर है अंधेर नहीं
जन्म से अब तक
सुनते आ रहे हैं
एक प्रश्न
छाती तान कर खड़ा है
न्याय में देरी होना क्या न्याय हैं ?
एक प्रश्न खड़ा  है
आरोपियों को दोषियों की तरह
सजा क्यों दी जाती है ?
क्या सभी आरोपी दोषी सिद्ध होते है ?
यदि हां तो
वर्षों तक कोर्ट का चक्कर क्यों ?
यदि नहीं तो
आरोपी के अनमोल वर्ष जो जेल में बीते,
दुख अपमान कष्ट में बीते,
उन क्षणों का भुगतान कौन करे ?
क्या कभी
झूठे आरोप लगाने वालों को सजा हुई है ?
क्या कोई कभी
इस सिस्टम पर प्रश्न खड़ा किया है ?
क्या कोई संगठन
उन निर्दोष आरोपियों के पक्ष में
प्रदर्शन किया है ?
सभी आरोपी दोषी नहीं होते
तो क्यों
आरोपियों को दोषियों की भांति सजा दी जाती है
क्यों क्यों क्यों
आखिर क्यों ?????

तीन तरह के लोग

होते सकल जहान में, तीन तरह के लोग ।
एक समय को भूल कर, भोग रहे हैं भोग ।।
भोग रहे हैं भोग, जगत में असफल होकर ।
कोस रहें हैं भाग्य, रात दिन केवल सो कर ।।
एक सफल इंसान, एक पल ना जो खोते ।
कुछ ही लोग महान, समय से आगे होते ।

कुछ दोहा

सहन करें हम कब तलक, आतंकी बकवास ।
नष्ट मूल से कीजिये, आये सबको रास ।।

राम दूत हनुमान को, बारम्बार प्रणाम ।
जिसको केवल प्रिय लगे, राम-राम का नाम ।

अर्पण है हनुमान प्रभु, राम-राम का नाम ।
संकट मोचन आप हो, सफल करे हर काम।।

फसी हुई है जाल में, हिन्दी भाषा आज ।
अॅग्रेजी में रौब है, हिन्दी में है लाज ।।

लोकतंत्र के तंत्र सब, अंग्रेजी के दास ।
अपनी भाषा में यहां, करे न कोई काज ।

कुछ दोहे


एक पहेली है जगत, जीवन भर तू बूझ ।
सोच सकारात्मक लिये, तुम्हे दिखाना सूझ ।।


अपनी भाषा में लिखो, अपने मन की बात ।
हिंदी से ही हिंद है, जिसमें प्रेम समात ।।


गद्दारों की गद्दारी से , बैरी है मुस्काए ।
गद्दारों को मार गिराओ , बैरी खुद मर जाए ।।

राधा-माधव प्रेम का, प्रतिक हमारे देश ।
फिर भी दिखते आज क्यों, विकृत प्रेम का वेश ।।

नहीं चाहिये प्रेम का, मुझको दिवस विशेष ।
मेरे जीवन में रहे, प्रतिपल प्रेम अशेष ।।

रूखा-रूखा जग लगे, होवे जब मन खिन्न ।
जिसको अपना कह थके, लगने लगते भिन्न ।।

माँ मौसी जो कर रहे, राजनीति के नाम ।
देख रही जनता अभी, उनके सारे काम ।

नियत रीत है काल का, जिनका अपना ढंग ।
समदर्शी यह काल है, हर पल सबके संग ।।

जिनके मन संतोष है, सुखी वही इंसान ।
तृप्त, तृप्त संतोष से, तृप्त नाम भगवान ।।

फाग राग फागुन सुनत, गह कर लिये गुलाल ।
थिरकत बसंत थाप पर, दोनों लालम लाल ।

श्रद्धा अरु विश्वास में, होती इतनी शक्ति ।
पत्थर को भगवान कर, देती हमको भक्ति ।।

खफा कहूं या व्यस्त उसे, या रह जाऊँ मौन ।
मित्र एक मेरा अभी, उठा रहा ना फोन ।

जात-पात को छोड़ दो, कहते हैं जो लोग ।
जात-पात के नाम पर, चखे राजसी भोग ।।

जात-पात जाने नही, विद्या बुद्धि विवेक ।
यथा विलायक नीर है, रंग-रंग में एक ।

धर्म निरपेक्ष देश में, दिखते धर्म हजार ।
जाति जाति के धर्म हैं, संविधान बेजार ।।

संविधान इतना कठिन, लाखों लाख वकील ।
सरल सहज इतना सहज, देते सभी दलील ।।

धर्म, डगर कर्तव्य का, जीव प्रकृति प्रति प्रीत ।
सद्गुण निज अंतस भरे, यही धर्म की रीत ।

घट-घट रज-कण जो रचे, रमे वही हर देह ।
जीव-जीव निर्जीव पर, करते रहते स्नेह ।


आँख खोल कर देखिये, सपने कई हजार ।
लक्ष्य मान कर दौड़िये, करने को साकार ।

मन का ही भटकाव है, दिखे स्वप्न जो रात ।
मन का हर संकल्प ही, खुले नयन की बात ।

कामयाब है आज वह, पैसा जिनके पास ।
सही दिशा अरु सोच ही, इनके साधन खास ।।

पहले करके देखिए, किए बिना क्यों प्रश्न ।
हार हार के अंत में, छुपा जीत का जश्न ।।

पहले अपने आप पर, करें पूर्ण विश्वास ।
फिर निश्चित है देखना, मंजिल तेरे पास ।।

सहनशक्ति कमजोर जब, लगते दर्द धनांक ।
गल जाते वे तार हैं, जिसके कम गलनांक ।।

लाख बुराई हो सही, पर कुछ तो है नेक ।
लाख बुराई छोड़कर, इक अच्छाई देख ।।

झूठ झूठ बाजार में, झूठे झूठे लोग ।
पड़े रहे विश्वास में, भोग रहे हैं भोग ।।

वायु पवन समीर हवा, प्राणवायु का नाम ।
ईश्वर अल्ला या खुदा, परमशक्ति से काम ।।

ढोल सुहाने दूर के, रहि-रहि मन भरमाय ।
हाथ जले जब होम से, तभी समझ में आय ।

स्वप्नों की रेखा बड़ी, स्रोत आय की छोट ।
दोनों रेखा एक हो, लगे न मन को चोट ।।

लाख जतन हमने किए, आए ना वह हाथ ।
चलने जो तैयार थे, छोड़ दिए अब साथ ।।


आस्था

मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे का
संत फकीर गुरु
पैगंबर ईश्वर का
अस्तित्व है
केवल मेरी मान्यता से
जिससे जन्मी  है
मेरी आस्था  ।
मेरी आस्था
किसी अन्य की आस्था से
कमतर नहीं है
न हीं उनकी आस्था
मेरी आस्था से कमतर है
फिर भी लोग क्यों
दूसरों की आस्था पर चोट पहुंचाकर
खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं ।
मुझे अंधविश्वासी कहने वाले खुद
पर झांक कर देखें
कितने अंधविश्वास में स्वयं जीते हैं ।

हर सवाल का जवाब एक सवाल

हर सवाल के जवाब से
पैदा होता है
एक नया सवाल
जिसका जवाब
पैदा करता है
पुन:
एक नया सवाल
सवालों के जवाबों का
चल पड़ता है
लक्ष्यहीन भटकाव
इसमें ठहराव तब आता है
जब सवाल का जवाब
एक सवाल ही हो
क्योंकि
हर सवाल का जवाब
केवल
एक सवाल होता है ।

जीने की कला

जग में जीने की कला,  जग से लेंवे सीख ।
जीवन जीने की कला, मिले न मांगे भीख  ।।
मिले न मांगे भीख,  सफलता की वह  कुंजी ।
व्यक्ति वही है सफल,  स्वेद श्रम जिनकी पूंजी ।।
चलते रहो "रमेश",  रक्त बहते ज्यो  रग में ।
चलने का यह काम, नाम है जीवन जग में ।।

वैभवशाली भारत होवे

हे मातृभूमि ममता रूपा, प्रतिपल वंदन तुझको ।
सुखमय लालन-पालन करतीं, गोद बिठाकर मुझको ।

मंगलदात्री पुण्यभूमि माँ, तन-मन अर्पण तुझको ।
तेरे ही हित काज करूँ मैं, इतना बल दे मुझको ।।

हे सर्वशक्तिशाली भगवन, कोटि नमन है तुझको ।
मातृभूमि की सेवा करने, बुद्धि शक्ति दे मुझको ।।

शक्ति दीजिये इतनी भगवन, दुनिया लोहा माने ।
ज्ञान-बुद्धि जन मन में भर दें, दुनिया जिसको जाने ।।

जाति-धर्म से उपजे बाधा, देश प्रेम से टूटे ।
समरसता में गांठे जितने, देश प्रेम से छूटे ।।

भांति-भांति के अंग हमारे, जैसे देह बनावे ।
भांति-भांति के लोग यहां के, काया सा बन जावे ।।

वैभवशाली भारत होवे, अखिल विश्व से बढ़कर ।
देश भक्ति की प्रबल भावना, अब बोले सिर चढ़कर ।।

हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।

हे विधाता नही बदनला मुझे तेरा विधान,
हर दुःख- सुख में मेरा कर दे कल्याण ।
चाहे जितना कष्ट मेरे भाग्य में भर दे,
पर हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।

जो संकट आये जीवन में उनसे मैं दो दो हाथ करू,
संकट हो चाहे जितना विकट उनसे मै कभी न डरू ।
चाहे मेरे हर पथ पर कंटक बिखेर दें,
पर उन कंटकों में चलने का साहस भर दें ।

कष्टो से विचलित हो अपनी मानवता धर्म कभी न भूलू,
हर जीवो के पथ के कंटक अपनी झोली में भर लू ।
चाहे मेरे जीवन को अश्रु धारा से भर दें,
पर अश्रु सागर को पीने मुझे अगस्त-सा कर दें ।

जीवन के किसी खुशी से मैं बौराऊ न,
अपनी खुशी में किसी को सताऊ न ।
चाहे जितनी खुशियां मेरी झोली में भर दे,
पर हर खुशीयों में जीने मुझे जनक-सा कर दें ।।

..............रमेश.........................

सच्चे झूठे कौन

कल का कौरव  आज तो, पाण्ड़व नाम धराय ।
कल का पाण्ड़व आज क्यों, खुद को ही बिसराय ।।
खुद को ही बिसराय, दुष्ट कलयुग में आकर ।
स्वर्ण मुकुट रख शीश, राज सिंहासन पाकर ।
ज्ञाता केवल कृष्ण, ज्ञान जिसको हर पल का ।
सच्चे झूठे कौन, याद किसको है कल का ।।

नूतन संवत्सर उदित

नूतन संवत्सर उदित,  उदित हुआ नव वर्ष  ।
कण-कण रज-रज में भरे,  नूतन-नूतन हर्ष ।।
नूतन नूतन हर्ष, शांति अरु समता लावे ।
विश्व बंधुत्व भाव, जगत भर में फैलावे ।।
नष्ट करें उन्माद, आज मिश्रित जो चिंतन ।
जागृत हो संकल्प, गढ़े जो भारत नूतन ।।

-रमेश चौहान

हे देश के राजनेताओं, थोड़ा तो शरम करो

हे देश के राजनेताओं, थोड़ा तो शरम करो ।
मुझको भारत माता कहते, मुझपर तो रहम करो ।।

लड़ो परस्पर जी भरकर तुम, पर लोकतंत्र के हद में ।
उड़ो गगन पर उडान ऊँची, पर धरती की जद में ।।

होते मतभेद विचारों में, इंसानों को क्यों मारें ।
इंसा इंसा के साथ रहे,, शैतानों को क्यों तारें ।।

सत्ता का तो विरोध करना, लोकतंत्र का हक है ।
मातृभूमि को गाली देना, कुछ ना तो कुछ शक है ।।

पहले ही बांट चुके हो तुम, मुझे उनके नाम पर ।
फिर टुकड़े करने तत्पर हो, मुझे उनके दाम पर ।।

राजनीति का एक लक्ष्य है, केवल सत्ता पाना ।
किंतु काम कुछ ना आयेगा, तेरा ताना-बाना ।

नहीं रहूँगी साथ तुम्हारे, ऐसे हालातो पर ।
जीवित कैसे रह पाऊँगी, तेरे इन घातों पर ।।
-रमेश चौहान

शिक्षित

शिक्षित होकर देश में, लायेंगे बदलाव ।
जाति धर्म को तोड़ कर, समरसता फैलाव ।।
समरसता फैलाव, लोग देखे थे सपने ।
ऊँच-नीच को छोड़, लोग होंगे सब अपने ।।
खेद खेद अरू खेद, हुआ ना कुछ आपेक्षित ।
कट्टरता का खेल, खेलते दिखते शिक्षित ।।

छत्तीसगढ़िया व्‍यंजन: बोरे-बासी

बासी में है गुण बहुत, मान रहा है शोध ।
खाता था छत्तीसगढ़, था पहले से  बोध ।
था पहले से  बोध, सुबह प्रतिदिन थे खाते ।
खाकर बासी प्याज, काम पर थे सब जाते ।।
चटनी संग "रमेेश",  खाइये छोड़ उदासी ।
भात भिगाकर रात, बनाई जाती बासी ।

भात भिगाकर राखिए, छोड़ दीजिये रात ।
भिगा भात वह रात का, बासी है कहलात ।।
बासी है कहलात, विटामिन जिसमें होता ।
है पौष्टिक आहार, क्षीणता जिससे खोता ।।
सुन लो कहे 'रमेश', राखिये रीत निभाकर।
कई-कई हैं लाभ, खाइये भात भिगाकर ।।

व्यंजन छत्तीसगढ़िया, बोरे बासी खास ।
सुबह-सुबह तो खाइये, जगावे न यह प्यास ।।
जगावे न यह प्यास, पसइया यदि तुम पीते ।
हड्डी बने कठोर, आयु लंबी तुम जीते ।
सुन लो कहे "रमेश", नहीं यह अभिरंजन ।
बोरे बासी खास, एक है पौष्टिक व्यंजन ।।

बोरे बासी में भेद है, यद्यपि रीत समान ।
एक रात का होत है, एक दिवस का जान ।।
एक दिवस का जान, नाम जिसका है बोरे ।
दिवस भिगाकर भात, खाइये छोरी-छोरे ।।
बासी बनते रात, खाइये बारहमासी ।
बचे भात उपयोग, करे है बोरे बासी ।।

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