‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

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फेरव दृष्टि इहां एक बारे

भारत भूमि धरा अति पावन
आप जहां प्रकटे बहुबारे ।
मानव दैत्य हुये जब कर्महि
छोड़हि धर्महि पाप सवारे ।।
धर्म बचावन को तब आपहिं
भारत भूमि लिये अवतारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

लालच लोभ भयंकर बाढ़त,
भारत को हि शिकार बनावे ।
स्वार्थ लगे सब काम करे अब,
लोग सभी घुसखोर जनावे ।।
मालिक नौकर चोर लगे अब
देश लुटे निज गेह सवारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

जंगल काटत पोखर पाटत,
लोग सभी निज काज बनावे ।
है सकरी सकरी गलियाँ अब
रोक गली जब लोग बसावे ।।
लोगन घेर रखे अब गोचर,
रोक रखे नदियां जल धारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

लोगन रोकत घेरत ऐठत
ठौर दिखे जब तो सरकारी ।
टैक्स चुरावत माल बढ़ावत
भारत देश अनेक व्यपारी ।।
निर्धन निर्धन गाँव दिखे अब
निर्धन के फल खावत सारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

जो बनते मुखिया हमरे जब,
ओ रखते धन ठूस तिजौरी ।
कारज पालन है जिनके कर
साहब साहब एक टकौरी ।।  (टकौरी-सोना-चाँदी तौलने का तुला )
स्वार्थ बड़ा निज कारज से अब
कौन करे अब तो उपकारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

साधु कहावत जो नर भारत
ठाठ दिखावत है इठलाते ।
नार रखे कुटिया मन लोभत
तोड़त धर्महि धर्म सिखाते ।।
ज्ञान दिये पर मानय ना खुद
संत कलंक किये व्यभिचारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

रामहि मंदिर खोजत न्यायहि
न्याय मिले जन को अब कैसे ।
तंत्र चले अपने मन माफिक
पत्थर मूरत हो वह जैसे ।।
धर्महि शीलहि खोजत मंदिर
ठौर दिखे नहिं एकहि न्यारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

याद करो निज आपन बातहि
धर्म बचापन आपहि आते ।
जो कछु भक्त  बचे अब भारत
धर्महि मानत कष्टहि पाते ।।
आवव आवव आपहि आवव
लेकर के फिर से अवतारे ।
हे जग पालक धर्म धुरन्धर,
फेरव दृष्टि इहां एक बारे ।।

निर्धन मेरे देश के, धनवानों से श्रेष्ठ

निर्धन मेरे देश के, धनवानों से श्रेष्ठ ।
बईमान तो है नही, जैसे दिखते जेष्ठ ।।
जैसे दिखते जेष्ठ, करोड़ो चपत लगाये ।
मुँह में कालिख पोत, देश से चले भगाये ।।
पढ़े-लिखे ही लोग, देश को क्यों हैं घेरे ।
अनपढ़ होकर आज, श्रेष्ठ हैं निर्धन मेरे ।।

करे नहीं नीलाम

विश्व एक बाजार है, क्रय करलें सामान ।
किन्तु आत्म सम्मान को, करें नहीं नीलाम ।
करें नहीं नीलाम कभी पुरखों की थाती ।
इनके विचार, और ज्ञान की, लेकर बाती ।
दीप जलाओ, लेकर अपने, आत्म बल नेक ।
खुद को जानों, फिर ये मानों, है विश्व एक ।

उदित हुई संस्कार नई है

उदित हुई संस्कार नई है, आई नूतन बेला ।
मंदिरों पर है वीरानी, मदिरालय पर मेला ।।

सुख दुख का सच्चा साथी, अब मदिरा को माने ।
ईश्वर को पत्थर की मूरत,  नए लोग हैं जाने ।।

दुग्धपान ना रुचते अब तो, बहुधा मांसाहारी ।
युवा वृद्ध वा अबोध बच्चे, दिखते हैं व्यभिचारी ।।

स्वार्थ की डोर गगनचुंबी है, धरती को जो बांटे ।
अपनों में भी लोग यहां अब, मेरा कहकर छांटे ।।

लोक मर्यादा बंधन लगते, अब नवीन पीढ़ी को ।
सीधे-सीधे मंजिल चढ़ते, तज घर की सीढ़ी को ।।

घर परिवार टूटता अब तो, अधिकार जताने से ।
नारी नर में द्वेष बढ़ा है, जागृति दिखलाने से ।।

कल की बातें हुई पुरानी, नई सोच आने से ।
संस्कार विहिन लोगों के अब, शिक्षित कहलाने से ।

शिक्षा नहि संस्कार चाहिए, समता दिखलाने को ।
भौतिकता को तज दो बंदे, आत्म शांति पाने को ।।

चंद दोहे


नारी बिन परिवार का, होय नही अस्तित्व।
प्रेम और संस्कार बिन, नारी नही कृतित्व ।।

एक पहेली है जगत, जीवन भर तू बूझ ।
सोच सकारात्मक लिये, तुम्हे दिखाना सूझ ।।

कर विरोध सरकार का, लोकतंत्र में छूट ।
देश हमारी माँ भली, लाज न इसकी लूट ।।

बच्चों में हिंसा पनप रहा है, छूट रहा संस्कार ।
एक अकेले बच्चे कुंठित, करते कई विचार ।।

नारी से नर होत है, नर से होते नार ।
ऊँच-नीच की बात क्यों, जब दोनों है आधार ।।

भौतिकता का फेर ही, व्यक्तिवाद का मूल ।
व्यक्तिवाद का फेर तो, है सामाजिक भूल ।

देह सुस्त मन बावरा, रखना इसे व्यस्त ।
काम करें हर वक्त जब, तन-मन रहते मस्त ।।

मेरा ठेका है नहीं, सेक्लुर होना आज ।
मैं भाई कहता रहा, बरस रहा तू गाज ।।

काम काम दिन रात है, जब तक तन में प्राण ।
नर जीवित है काम से, वरना मृतक समान ।।
509. उदित हुई मन क्षितिज पर, स्वर्णिम रवि सम प्रीत ।
आलोकित है तन बदन, विजयी कालातीत ।।

गिरगिट नेता को जब देखे, रह जाता है दंग ।
दुनिया मुझको यूं ही कहती, नेता बदले रंग ।।

.अपनेपन की डोर से, बंधा है संसार ।
यह मेरा घर द्वार है, यह मेरा परिवार ।।

पहले अपना मान लो, हो जाएगा प्यार ।
अपनेपन की भाव से, हृदय भरो संसार ।।

युवा आयु से होय ना, युवा सोच का नाम ।
नई सोच हर आयु पर, करते नूतन काम ।।

जाति सत्य इस देश में

कभी जाट पटेल कभी, कभी और का दांव ।
करणी सेना बाद अब, देखो कोरेगांव ।।
जाति मान अभिमान है, बड़ा जाति अपमान ।
जाति सत्य इस देश में, देखें देकर ध्यान ।।
राजनीति के खेल में, चले जाति का खेल ।
दंगा दंगा में दिखे, जाति पंथ का मेल ।।
केवल प्रेम विवाह में, अंधे होते लोग ।
जात पात को छोड़कर, भोग रहे हैं भोग ।।

दासता गढ़ते नव

नव अंग्रेजी वर्ष में, युवा मस्त हैं हिंद ।
भारतीय परिवेश को, भूल आंग्ल के बिंद ।।
भूल आंग्ल के बिंद, दासता किसको कहते ।
तज अपनी पहचान, दासता में ही रहते ।
तजे देह जब श्वास, नाम होता उसका शव ।
वैचारिक परतंत्र, दासता गढ़ते नव ।।

आज की शिक्षा नीति

शिक्षा माध्यम ज्ञान का, नहीं स्वयं  यह ज्ञान ।
ज्ञान ललक की है उपज, धर्म मर्म विज्ञान ।।
धर्म मर्म विज्ञान, सरल करते जीवन पथ ।
शिक्षा आज व्यपार, चले कैसे जीवन रथ ।।
करे कैरियर खोज, आज फैशन में शिक्षा ।
मृत लगते संस्कार, आज मिलते जो शिक्षा ।।
-रमेश चौहान

दोहे-कानून और आदमी

कानून और आदमी, खेल रहे हैं खेल ।
कभी आदमी शीर्ष है, कभी शीर्ष है जेल ।।

कानून न्याय से बड़ा, दोनों में मतभेद ।
न्याय देखता रह गया, उन  पर उभरे छेद ।।

न्याय काल के गाल में, चढ़ा हुआ है भेट ।
आखेटक कानून है, दुर्बल जन आखेट ।।

केवल झूठे वाद में, फँसे पड़े कुछ लोग ।
कुछ अपराधी घूमकर, फाँके छप्पन भोग ।।

कानून और न्याय द्वै, नपे एक ही तौल ।
मोटी-मोटी पुस्तकें, उड़ा रही माखौल ।।

रखते क्यों नाखून (कुण्डलियां)

मानव होकर लोग क्यों, रखते  हैं नाखून ।
पशुता का परिचय जिसे, कहता है मजमून ।।
कहता है मजमून, बुद्धि जीवी है मानव ।
होते विचार शून्य, जानवर या फिर दानव ।।
बनते भेड़ "रमेश", आज फैशन में खोकर ।
रखते हैं नाखून, लोग क्यों मानव होकर ।।

पहनावा (कुण्डलियां)

पहनावा ही बोलता, लोगों का व्यक्तित्व ।
वस्त्रों के हर तंतु में, है वैचारिक स्वरितत्व ।।
है वैचारिक स्वरितत्व, भेद मन का जो खोले ।
नग्न रहे जब सोच, देह का लज्जा बोले ।
फैशन का यह फेर, नग्नता का है लावा ।
आजादी के नाम, युवा पहने पहनावा ।।

शिक्षा तंत्र पर दोहे

शिक्षाविद अरु सरकार से, चाही एक जवाब ।
गढ़े निठ्ठले लोग क्यो, शिक्षा तंत्र जनाब ।।

रोजगार गारंटी देते, श्रमिकों को सरकार ।
काम देश में मांग रहे अब, पढ़े लिखे बेगार ।

बेगारी की बात पर, विचार करे समाज ।
पढ़े लिखे ही लोग क्यों, बेबस लगते आज ।।

अक्षर पर निर्भर नहीं, जग का कोई ज्ञान ।
अक्षर साधन मात्र है, लक्ष्य ज्ञान को जान ।।

विद्या शिक्षा में भेद है, जैसे आत्मा देह ।
देह दृश्य हर आँख पर, आत्मा रहे विदेह ।।

कार्यकुशलता मूल में, ऐसा शिक्षा तंत्र ।
बेगारी की है दवा, निश्चित जाने मंत्र ।।

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