‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

अटल नियम है सृष्टि की

अटल नियम है सृष्टि की, देखें आंखे खोल ।
प्राणी प्राणी एक है, आदमी पिटे ढोल ।।

इंसानी संबंध में, अब आ रही दरार ।
साखा अपने मूल से, करते जो तकरार ।।

खग-मृग पक्षी पेड़ के, होते अपने वंश ।
तोड़ रहे परिवार को, इंशा देते दंश ।।

कई जाति अरू वर्ण के, फूल खिले है बाग ।
मिलकर सब पैदा करे, इक नवीन अनुराग ।।

वजूद बगिया के बचे, हो यदि नाना फूल ।
सब अपने में खास है, सबको सभी कबूल ।।

पत्ते छोड़े पेड़ जो, हो जाते हैं खाक ।
उग आतें है ठूठ में, नवीन पर्ण सजात ।।

आम बौराय आम में, नीम बौराय नीम ।
आम नीम के मेल का, दिखे न कोई थीम ।।

आम नीम तो भिन्न है, नाम पेड़ है एक ।
पृथ्क-पृथ्क होते हुये, शत्रुता नही देख ।।
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भूकंप






कांप रही धरती नही, कांप रहे इंसान ।
झटके खाकर भूकंप के, संकट में है प्राण ।।

कितने बेघर हैं हुये, कितने खोये जान ।
मृत आत्माओं को मिले, परम श्‍ाांति भगवान ।।


संकट के इस क्षण में, हम हैं उनके साथ ।
जो बिछुड़े परिवार से, जो हो गये अनाथ ।।
कंधे कंधे जोड़ कर, उठा रहे हैं भार ।
भारत या नेपाल हो, या पूरा संसार ।।
-रमेश्‍ा चौहान

ये कैसा प्रतिकार

हुआ मौत भी खेल क्यों, ये कैसा प्रतिकार ।
उस गजेन्द्र के मौत का, दिखे न जिम्मेवार ।। 
दिखे न जिम्मेवार, सोच कर आये रोना ।
मौसम का वह मार, फसल का चौपट होना ।।
बेसुध वह सरकार, विरोधी लाये बिनुआ ।
पोलिस नेता भीड़, रहे फिर क्यों मौत हुआ ।।

प्यार हुआ व्यपार (दोहे)

लगता है अब प्यार भी, हुआ है इक व्यपार ।
नाप तौल के कर रहे, छोरा छोरी प्यार ।।

छोरा देखे रूप को, सुंदर तन की चाह ।
जेब परख कर छोकरी, भरती ठंडी आह ।।

राधा मीरा ना बने, बने नही है राम ।
गोपी सारी छोकरी, छोकरा बने श्याम ।।

पहले कहते लोग थे, मत हो बेकारार ।
प्यार किया जाता नही  , हो जाता है प्यार ।।

करने से होता नही, जब किसी को प्यार ।
मारा मारा क्यों फिरे, करने को इकरार ।।

प्यार नही है वासना, वासना नही प्यार ।
सौ फिसदी यह सत्य है, थोथी है तकरार ।।

बसे प्राण तो गांव के खेत में (शक्ति छंद)















शहर के किनारे इमारत जड़े ।
हरे पेड़ हैं ढेर सारे खड़े ।
सटे खेत हैं नीर से जो भरे ।
कृषाक कुछ जहां काम तो हैं करे ।।

हमें दे रहा द्श्य संदेश है ।
गगन पर उड़े ना हमें क्लेश है ।
जमी मूल है जी तुम्हारा सहीं ।
तुम्हें देख जीना व मरना यहीं ।।

करें काज अपने चमन के सभी ।
न छोड़े वतन भूलकर के कभी ।।
बसे प्राण तो गांव के खेत में ।
मिले अन्न जिनके धुली रेत में ।।

बढ़ायें धरा धाम के शान को (शक्ति छंद)

कई लोग पढ़ लिख दिखावा करे ।
जमी काज ना कर छलावा करे ।।
मिले तृप्ति ना तो बिना अन्न के ।
रखे क्यो अटारी बना धन्न के ।।
भरे पेट बैठे महल में कभी ।
मिले अन्न खेती किये हैं तभी ।।
सभी छोड़ते जा रहे काम को ।
मिले हैं न मजदूर भी नाम को ।।
न सोचे करे कौन इस काज को ।
झुका कर कमर भेद दें राज को ।।
चलें आज हम रोपने धान को ।
बढ़ायें धरा धाम के शान को ।।

कुन्डलिया छन्द (विषय- बेरोजगारी)


पढ़े-लिखे युवती युवक, ढूंढ रहें हैं काम ।
पढ़ लिख कर सब चाहते, लेना इसका दाम ।।
लेना इसका दाम, किये हैं व्यय अतिभारी ।
अभियंता की चाह, दिखाते अब लाचारी ।।
बनने तक को प्यून, पंक्ति में तैयार दिखे ।
बनने को सर्वेंट, सभी ये हैं पढ़े-लिखे ।।
-रमेश चौहान

तुम (मुक्तक)

तुम समझते हो तुम मुझ से दूर हो ।
जाकर वहां अपने में ही चूर हो ।।
तुम ये लिखे हो कैसे पाती मुझे,
समझा रहे क्यों तुम अब मजबूर हो ।।

कहो ना (मुक्तक)

कहो ना कहो ना मुझे कौन हो तुम ,
सता कर  सता कर  मुझे मौन हो तुम ।
कभी भी कहीं का किसी का न छोड़े,
करे लोग काना फुसी पौन हो तुम ।।
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पौन-प्राण

व्यवहार (आल्हा छंद)

हमें चाहिये सेवा करना, मातु-पिता वृद्धो के खास ।
हमें चाहिये बाते करना, मीठी-मीठी लेकर विश्वास ।।

चलना चाहिये सभी जन को, नीति- रीति के जो सद् राह ।
भले बुरे लोग सभी कहते, यह मानव जीवन की चाह ।।

भला लगे कहने सुनने में, बात आदर्श की सब आज ।
बड़ा कठिन हैं परंतु भैय्या, आत्मसात करना यह काज ।

चाहिये चाहिये सब कहते, पर तन मन से जाते हार ।
बात कहे ना कोई ऐसा, होते जैसे जग व्यवहार ।।

धरा खड़े वह गिनते तारे, बाहों में भरने लगाय आस ।
आग आदर्श की बातें हैं, छू सके कौन जाकर पास।।

कौन कहे बेटा बेटी का, मातु पिता भी लगे उदास ।
देख रहे हैं हम तो अपने, घर-परिवार के आस-पास ।।

यहां स्वार्थ के रिश्ते नाते, बुने स्वार्थ के ही व्यवहार ।
फसे हुये लोभ मोह में सब, करते केवल लोकाचार ।।

चाहिये शब्द को अभी हटाओ, मानव शब्द-कोश से आज ।
अब तो केवल कहना होगा, करो लोग मानव के काज ।।

करना अब तो करना होगा, जिससे आये सद्व्यवहार ।
मानव इक सामाजिक प्राणी, साथ रहे निज गुरूता वार ।।

मुक्तक


1.पीसो जो मेंहदी तो, हाथ में रंग आयेगा ।
बोये जो धान खतपतवार तो संग आयेगा ।
है दस्तुर इस जहां में सिक्के के होते दो पहलू
दुख सहने से तुम्हे तो जीने का ढंग आयेगा ।।

2. अंधियारा को चीर, एक नूतन सबेरा आयेगा ।
राह बुनता चल तो सही तू, तेरा बसेरा आयेगा ।।
हौसला के ले पर, उडान जो तू भरेगा नीले नभ ।
देख लेना कदमो तले वही नभ जठेरा आयेगा ।



आज और कल (दोहे)

1     .नई पुरानी बात में, किसे कहे हम श्रेष्ठ ।
        एक अंध विश्वास है, दूजा फैशन प्रेष्ठ ।।                                 प्रेष्ठ=परमप्रिय

2. तना खड़ा है मूल पर, लगे तना पर फूल ।
रम्य तना का फूल है, जमे मूल पर धूल ।।

3. पानी दे दो मूल को, तना को है कबूल ।
नीर तना पर सींचये, सूखे पेड़ समूल ।।

4. अनुभव कहते हैं किसे, बता सके है बाल ।
जोश होश छोड़ कर, बजा रहें हैं गाल ।।

5. क्रंदन ठाने भूत है, मतलब रखे न आज ।
चिंता भविष्य है करे, कैसे होगी काज ।।

6. कल तो कड़वी औषधी, मीठी विष है आज ।
आज और कल मेल कर, समझ सके ना राज ।।

भूख (कुण्डलियां)

सही गलत का फैसला, कर ना पाये भूख ।
उदर भरे से काम है, चाहे मिले बदूख ।।
चाहे मिले बदूख, मौत तो भूख मिटाये ।
दुख दायी अति भूख, भूख तो सहा न जाये ।
रो रो कहे ‘रमेश‘ , दीनता की बात यही ।
सब दुख देना नाथ, न देना दुख भूख सही ।।

नाना प्रकार भूख के, होय सभी आक्रांत ।
कितने भूखे लोभ के, होय कभी ना शांत ।।
होय कभी ना शांत, होय जो तन का भूखा ।
उदर क्षुधा को लोग, मिटाये खा रूखा सूखा ।।
कैसे कहूं ‘रमेश‘, जगत को भूखा जाना ।
लोभ अौर व्यभिचार, हमारे लगते नाना ।।

नारी ही मां होत है (दोहा)


काट रहे उस साख को, जिसमें बैठे आप ।
कन्या को क्यो कोख में, कर देते हो साफ ।।

कन्या तो है सृष्टि की, इक अनुपम सौगात ।
माॅं बहना अरू पत्नि वह, मानव की अतिजात ।।

जीवन रथ के चक्र दो, इक नर दूजा नार ।
रख दोनो में संतुलन, जीवन धुरी सवार ।।

नारी ही मां होत है, जिससे चलती सृष्टि ।
करती रहती जो सदा, प्रेम सुधा की वृष्टि ।।

जीवन साथी चाहिये, हर नर को तो एक ।
यदि कन्या होगी नही, नर ना होंगे नेक ।।

अंतरमन में रखूं समेटे.

अंतरमन में रखूं समेटे, हम सब की जो है यारी ।
छुटपन की हम सखी सहेली, इक दूजे को प्यारी ।।

साथ-साथ हम पढ़े-लिखें हैं, खेले कूदे साझा ।
किये शरारत इक दूजे से, स्मरण हुई अब ताजा ।।
शिशु से किशोरी भई हम तो, गई समय मनुहारी ।
पढ़ाई स्कूल की पूर्ण हुई, बिछुड़न की अब बारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

‘रश्मि‘ बड़ी भोली-भाली तू, बात सभी सह जाती ।
ध्यान सभी की रखती आई, प्यार सदा जतलाती ।।
लड़ती-झगड़ती  शरारत में, मस्ती करती प्यारी ।
यदा-कदा जब वह रूठ जाती, हमसब  कहतीं स्वारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

‘मधु‘ तो गुस्सा नाक बिठाये, सुन शरारती बातें ।
चाहे वह रूठे हजार हम पर, भुक्कड़ बोल चिढ़ाते ।।
भूख छोड़ सब बातें सहती, सहन शक्ति अति भारी ।
शांत सहज दिखती वह हर पल, अति प्रिय सखी हमारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

‘प्रिया‘ बहुत सीधी-सादी तू, आॅंसू सबकी पोछे ।
भला सदा तू सबकी करती, बुरा कभी ना सोचे ।।
कभी नही तू रोती पल भर, चाहे दुख हो भारी ।
प्रिया तुझे सभी सखीयों में,जिज्ञासा अति प्यारी।। अंतरमन में रखूं समेटे....

‘जिज्ञासा‘ अति भावुक कन्या, सबका कहना माने ।
सबको करती स्नेह बराबर, निकट प्रिया को जाने ।।
छोटी-छोटी बातो पर वह, कहती हरदम स्वारी ।
हम सब की अति प्यारी तू तो, ‘वत्सला‘ तुझे प्यारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

वातसल्य भरी ‘वत्सला‘ में, बहुत खुशीया बांटे ।
मुस्कान चेहरों पर लाकर, गहन क्लेश को काटे ।।
अपने दुख पर परदा डालें, खुश रहती मतवारी ।
शालीनता भरे रग-रग में, बातें करती प्यारी । अंतरमन में रखूं समेटे....

‘दिव्या‘ रखती ध्यान सभी का, अच्छा खाना लाती ।
जब कोई दो बातें करतीं, सदा बीच में आती ।।
हरदम वह रश्मि संग करती, मस्ती प्यारी-प्यारी ।
साथ सभी के घुलमिल रहती, प्रिय सहेली हमारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

अभी-अभी तो साथ हमारे, आई नई सहेली ।
कैसे घुलमिल हमसे गई, लगती एक पहेली ।।
मस्ती में वह करती मस्ती, कभी शरारत न्यारी ।
पढ़ने-लिखने में चंगा जो, वह ‘धनेश्वरी‘ प्यारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

सुखमय चौदह बरस गुजारे, हम सभी संगवारी ।
स्वर्णिम पल आंखों में भरकर, गा रहे गीत प्यारी ।। अंतरमन में रखूं समेटे....

प्रीत के दोहे


कितनी विचित्र बात है, कैसे खोलू राज ।
होकर मेरी जिंदगी, वह मुझसे नाराज ।।

कुछ ना कुछ तो बात है, लगी मुझे वह खास ।
जीवन में पहली दफा, हुआ कुछ एहसास ।।

जीवन जो बेरंग था, रंगीन हुआ आज ।
चहक उठी जो कोयली, झनक उठे मन साज ।

दिल की दिल से बात है, समझ रहे दिलदार।
उनके मेरे प्रीत को, जाने ना संसार ।।

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