‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

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नाहक करे बवाल

मंदिर मेरे गाँव का, ढोये एक सवाल पत्थर की यह मूरत पत्थर, क्यों ईश्वर कहलाये काले अक्षर जिसने जाना, ढोंग इसे बतलाये शंखनाद  के शोर से, होता जिन्हें मलाल देख रहा है मंदिर कबसे, कब्र की पूजा होते लकड़ी का स्तम्भ खड़ा है उनके मन को धोते प्रश्न वही अब खो गया, करके नया कमाल तेरे-मेरे करने वाले, तन को एक बताये मन में एका जो कर न सके ज्ञानी वह कहलाये सूक्ष्म...

इतिहास में दबे पड़े हैं काले हीरे मोती

इतिहास में दबे पड़े हैं काले हीरे मोती अखण्ड़ भारत का खण्डित होना किया जिसने स्वीकार महत्वकांक्षा के ढोल पीट कर करते रहे प्रचार आजादी के हम जनक हैं सत्ता हमारी बापोती धर्मनिरपेक्षता को संविधान का जब गढ़ा गया था प्राण बड़े वस्त्र को काट-काट कर क्यों बुना फिर परिधान पैजामा तो हरपल साथ रहा पर उपेक्षित रह गया धोती जात-पात, भाषा मजहब में फहराया गया था...

महिलाएं भी इसी पत्रिका से करे निमंत्रण स्वीकार

महिलाएं भी इसी पत्रिका से करे निमंत्रण स्वीकार मेरे हाथ पर निमंत्रण कार्ड है पढ़-पढ़ कर सोच रहा हूॅ विभाजनकारी रेखा देख खुद को ही नोच रहा हूॅं कर्तव्यों की डोर शिथिल पड़ी अकड़ रहा अधिकार भाभी के कहे भैया करते भैया के कहे पर भाभी घर तो दोनों का एक है एक घर के दो चाबी अर्धनारेश्वर आदिदेव हैं जाने सकल संसार मेरा-तेरा, तेरा-मेरा गीत गा रहा है कौन प्रश्न,...

कुछ समझ नही पाता

मैं गदहा घोंचू हॅूं कुछ समझ नही पाता मैं भारत को आजाद समझता वे आजादी के लगाते नारे जिसे मैं बुद्धजीवी कहता उनसे वे निभाते भाईचारे अपने वतन को जो गाली देता राष्ट्र भक्त बन जाता मैं धरती का सेवक ठहरा वे कालेज के बच्चे मेरी सोच सीधी-सादी वो तो ज्ञानी सच्चे माँ-बाप को घाव देने वाला श्रवण कुमार कहलाता मैं कश्मीर का निष्कासित पंड़ित वे कश्मीर के करिंदे मेरे...

एक राष्ट्र हो किस विधि

एक-दूजे के पूरक होकरयथावत रखें संसार पक्ष-विपक्ष राजनीति मेंजनता के प्रतिनिधिप्रतिवाद छोड़ सोचे जराएक राष्ट्र हो किस विधि अपने पूँछ को शीश कहतेदिखाते क्यों चमत्कार हरे रंग का तोता रहताजिसका लाल रंग का चोंचएक कहता बात सत्य हैदूजा लेता खरोच सत्य को ओढ़ाते कफनसंसद के पहरेदार सागर से भी चौड़े हो गयेसत्ता के गोताखोरचारदीवारी के पहरेदार हीनिकले...

गीत

सेठों को देखा नही, हमने किसी कतार में   फुदक-फुदक कर यहां-वहां जब चिड़िया तिनका जोड़े बाज झपट्टा मार-मार कर उनकी आशा तोड़े   जीवन जीना है कठिन, दुनिया के दुस्वार में   जहां आम जन चप्पल घिसते दफ्तर-दफ्तर मारे । काम एक भी सधा नही है रूके हुयें हैं सारे   कौन कहे कुछ बात है, दफ्तर उनके द्वार म...

प्रदूषण

प्रकृति और मानव में मचा हुआ क्यों होड़ है धरती अम्बर मातु-पिता बन जब करते रखवारी हाड़-मांस का यह पुतला तब बनती देह हमारी मानव मन में जन्म से वायु-धूल का जोड़ है मानव मस्तिष्क नवाचारी नित नूतन पथ गढ़ता अपनी सारी सोच वही फिर गगन धरा पर मढ़ता ऐसी सारी सोच की अभी नही तो तोड़ है माँ के आँचल दाग मले वह शान दिखा कर झूठे अपने मुख पर कालिख पाकर पिता पुत्र...

भारत के राजधानी में

हवा में, पानी में भारत के राजधानी में घूम रहा है ‘करयुग‘ का कर्म श्यामल-श्यामल रूप धर कर यमराज के साथ चित्रगुप्त स्याह खाते को बाँह भर कर बचपने में, बुढ़ापे में कर रहा हिसाब भरी जवानी में जग का कण-कण बंधा है अपने कर्मो के डोर से सूर्य अस्त होता नही राहू-केतू के शोर से भरे हाट में, सुने बाट में छोड़ देता है पद चिन्ह हर जुबानी में पाप की रेखा लंबी...

घुला हुआ है वायु में, मीठा-सा विष गंध (नवगीत,)

घुला हुआ है वायु में, मीठा-सा  विष गंध जहां रात-दिन धू-धू जलते, राजनीति के चूल्हे बाराती को ढूंढ रहे  हैं, घूम-घूम कर दूल्हे बाँह पसारे स्वार्थ के करने को अनुबंध भेड़-बकरे करते जिनके, माथ झुका कर पहुँनाई बोटी -  बोटी करने वह तो सुना रहा शहनाई मिथ्या- मिथ्या प्रेम से बांध रखे इक बंध हिम सम उनके सारे वादे हाथ रखे सब पानी चेरी,  चेरी...

सावन सूखा रह गया

सावन सूखा रह गया, सूखे भादो मास विरहन प्यासी धरती कब से, पथ तक कर हार गई पनघट पूछे बाँह पसारे, बदरा क्यों मार गई पनिहारिन भी पोछती अपना अंजन-सार रक्त तप्त अभिसप्त गगन यह, निगल रहा फसलों को बूँद-बूँद कर जल को निगले, क्या दें हम नसलों को धू-धू कर अब जल रही हम सबकी अँकवार कब तक रूठी रहेगी हमसे, अपना मुँह यूॅं फेरे हम तो तेरे द्वार खड़े हैं हृदय हाथ...

नवगीत-मंदिर मस्जिद द्वार

1.   मंदिर मस्जिद द्वार बैठे कितने लोग लिये कटोरा हाथ शूल चुभाते अपने बदन घाव दिखाते आते जाते पैदा करते एक सिहरन दया धर्म के दुहाई देते देव प्रतिमा पूर्व दर्शन मन के यक्ष प्रश्‍न मिटे ना मन लोभ कौन देते साथ कितनी मजबूरी कितना यथार्थ जरूरी कितना यह परिताप है यह मानव सहयातार्थ मिटे कैसे यह संताप द्वार पहुॅचे निज हितार्थ मांग तो वो भी...

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