‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

मेरी बाहो में आओ

नीले नभ से उदित हुई तुम, 
नूतन किरणों सी छाई।
ओठो पर मुस्कान समेटे,
सुधा कलश तुम छलकाई ।।
निर्मल निश्चल निर्विकार तुम, 
परम शांति को बगराओ ।
बाहों में तुम खुशियां भरकर, 
मेरी बाहो में आओ।।
-रमेश चौहान

मेरी बाहो में आओ

नीले नभ से उदित हुई तुम, 
नूतन किरणों सी छाई।
ओठो पर मुस्कान समेटे,
सुधा कलश तुम छलकाई ।।

निर्मल निश्चल निर्विकार तुम, 
परम शांति को बगराओ ।
बाहों में तुम खुशियां भरकर, 
मेरी बाहो में आओ।।



-रमेश चौहान

कुलषित संस्कृति हावी तुम पर

कुलषित संस्कृति हावी तुम पर, बांह पकड़ नाच नचाये ।
लोक-लाज शरम-हया तुमसे, बरबस ही नयन चुराये ।।

किये पराये अपनो को तुम, गैरों से हाथ मिलाये ।
भौतिकता के फेर फसे तुम, अपने घर आग लगाये ।।

मैकाले के जाल फसे हो, समझ नही तुझको आयेे ।
अपनी संस्कृति अपनी माटी, तुझे फुटी आँख न भाये ।।

दुग्ध पान को श्रेष्ठ जान कर, मदिरा को क्यो अपनाये ।
पियुष बूॅद गहे नही तुम तो, गरल पान को ललचाये ।।

पैर धरा पर धरे नहीं तुम, उड़े गगन पँख पसारे ।
कभी नहीं सींचे जड़ पर जल, नीर साख पर तुम डारे ।

नीड़ नोच कर तुम तो अपने, दूजे का सदन सवारे ।
करो प्रीत अपनो से बंदे, कह ज्ञानी पंडित हारे ।।

पीपल औघड़ देव सम

पीपल औघड़ देव सम, मिल जाते हर ठौर पर ।
प्राण वायु को बांटते, हर प्राणी पर गौर कर ।।

आंगन छत दीवार पर, नन्हा पीपल झांकता ।
धरे जहां वह भीम रूप, अम्बर को ही मापता ।

कांव कांव कौआ करे, नीड़ बुने उस डाल पर ।
स्नेह पूर्ण छाया मिले, पीपल के जिस छाल पर ।।

छाया पीपल पेड़ का, ज्ञान शांति दे आत्म का ।
बोधि दिये सिद्धार्थ को, संज्ञा बौद्ध परमात्म का ।। बोधि-पीपल का वृक्ष 

भाग रहा धर्मांध तो, मानो वह इक भेड़ है ।
धर्म मर्म को जोड़ता, पीपल का वह पेड़ है ।।

यही देश अभिमान है

आजादी का पर्व यह, सब पर्वो से है बड़ा ।
बलिदान के नींव पर, देश हमारा है खड़ा ।।

अंग्रेजो से जो लड़े, बांध शीष पर वह कफन ।
किये मजबूर छोड़ने, सह कर उनके हर दमन ।।

रहे लक्ष्य अंग्रेज तब, निकालना था देश से ।
अभी लक्ष्य अंग्रेजियत, निकालना दिल वेश से।

आजादी तो आपसे, सद्चरित्र है चाहता ।
छोड़ो भ्रष्टाचार को, विकास पथ यह काटता ।।

काम नही सरकार का, गढ़ना चरित्र देश में ।
खास आम को चाहिये, गढ़ना हर परिवेष में ।।

झूठे लगते लोग सब, जब भी लेते हैं शपथ ।
आय छुपाते सरकार से, चल पड़ते हैं वह कुपथ ।।

कौन देश द्रोही यहां, कौन देश का भक्त है ।
कृत्य देख उनके भला, किसको कहें सशक्त है ।।

पोषित करते कौन हैं, आतंक के हर बीज को ।
चिन्हांकित तो कीजिये, कौन सींचतेे खीझ को ।।

मरना मिटना देश पर, नही एक पहचान है ।
जीना केवल देश हित, यही देश अभिमान है ।।

गूॅंज रहे हैं व्योम

हर शिव हर शिव शिव शिव हर हर, शंभु सदाशिव ओम ।
हर हर महादेव शिव शंकर, गूॅंज रहे हैं व्योम ।।

परम सुहावन सावन आये, भक्त करे जयकार ।

साजे काॅवर कांधे पर ले, भक्त चले शिव द्वार ।।
दुग्ध शर्करा गंगा जल से, भक्त करे परिषेक ।
बेल पत्र अरू कनक पुष्प से, करे भक्त अभिषेक ।
आदिदेव को भक्त मनावे, करते आयुष्होम । हर हर महादेव...

अंग भभूती चंदन मल कर, करते हम श्रृंगार ।
हे कैलाशी घट घट वासी, कर लें अंगीकार ।।
जय जय शशिशेखर जय पशुपति, पाश विमोचन नाथ ।
सहज सरल हे भोले बाबा, करिये हमें सनाथ  ।।
एक अराध्य देव हमारे, जिनके माथे सोम । हर हर महादेव...



गौ माता

गाय को न जीव मात्र, मानिये महानुभाव
हमने सदैव इसे, माॅं समान माना है ।
धरती की कामधेनु, धरती का कल्पवृक्ष
भव तरण तारणी, गौ माॅं को ही जाना है ।

गौ माता के रोम-रोम, कोटि कोटि है देवता
ब्रम्हा बिष्णु शिव सभी, गौ पर विराजते।
धर्म सनातन कहे, गौ गंगा अरू गीता को
जो करे मन अर्पण, मुक्ति पथ साजते ।।

विज्ञान की कसौटी से, परख कर जाना है
गौ मूत्र अरू गोबर , औषधी का खान है ।
दूध दही घी मक्खन, जिसने है पान किया
निश्चित ही मान लिया, यही सुधा पान है ।।

धरती की उर्वरा को, गोबर खाद बढ़ाये
जिससे उपजे अन्न, स्वस्थ देह साजता ।
युग युग से मानव, गोबर पानी लिप कर
कुटिया या महल को, पावन ही मानता ।।

रोग जितने देह के, असाध्य जो कहलाये
साध्य वह बन जाते, गौ मूत्र के पान से ।
धरती वायुमंडल, जो ध्रुम कुलषित है
शुद्ध पावन तो होंगे, होम घृत दान से ।।

मानिये महानुभाव, बात को परख कर
सृष्टि संतुलन में तो, अनमोल धेनु है ।
जग के सकल जीव, यदि पुष्प की कली हो
गौ माता इस पुष्प की, एक पुहुरेनु है ।।

अपने को गौ सेवक, जो जन है मानते
पहले पहल आप, गौचर को छोड़िये ।
गौठान नदी तट के, बेजाकब्जा छोड़
अपना  निज संबंध, गौ माता से जोड़िये ।।

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