प्रेम और संबंध में पहले आया कौन
वो प्यार नहीं तो क्या था?
तेरे नैनों का निमंत्रण पाकर
मेरी धड़कन तुम्हारी हुई ।
मेरे नैना तुम्हारी अंखियों से,
पूछा जब एक सवाल
तुम में ये मेरा बिम्ब कैसा ?
पलकों के ओट पर छुपकर
वह बोल उठी- "मैं तुम्हारी दुलारी हुई ।"
नैनों की भाषा जुबा क्या समझे
कहता है ना तुझसे मेरा वास्ता
यह तकरार नहीं तो क्या था ?
नयनों ने फिर नैनों से पूछा
वो प्यार नहीं तो क्या था ??
-रमेश चौहान
हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।
हे विधाता नही बदनला मुझे तेरा विधान,
हर दुःख- सुख में मेरा कर दे कल्याण ।
चाहे जितना कष्ट मेरे भाग्य में भर दे,
पर हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।
जो संकट आये जीवन में उनसे मैं दो दो हाथ करू,
संकट हो चाहे जितना विकट उनसे मै कभी न डरू ।
चाहे मेरे हर पथ पर कंटक बिखेर दें,
पर उन कंटकों में चलने का साहस भर दें ।
कष्टो से विचलित हो अपनी मानवता धर्म कभी न भूलू,
हर जीवो के पथ के कंटक अपनी झोली में भर लू ।
चाहे मेरे जीवन को अश्रु धारा से भर दें,
पर अश्रु सागर को पीने मुझे अगस्त-सा कर दें ।
जीवन के किसी खुशी से मैं बौराऊ न,
अपनी खुशी में किसी को सताऊ न ।
चाहे जितनी खुशियां मेरी झोली में भर दे,
पर हर खुशीयों में जीने मुझे जनक-सा कर दें ।।
..............रमेश.........................
यही सत्य ही सत्य है
मानों या न मानो यारों
यही सत्य ही सत्य है
केवल प्यार ही प्यार है
प्यार देखता नही कभी मजहब
न लड़का न लड़की
समझे इसका मतलब
प्यार लिंग भेद में है नही
यह तो वासना है यारों
कभी किसी ने सोचा है
केवल युवक और युवती
क्यों करते फिरते रहते
प्यार, प्यार इस जगती
प्यार कैद में होता नही
यह तो स्वार्थ है यारों
प्यार के दुहाई देने वाले
जग के प्यार भूल बैठे हैं
जनक जननी को छोड़ खड़े
अपने मैं ऐठे ऐठे है
प्यार हत्यारा होता नहीं
यह तो पागलपन है यारों
मानों या न मानों यारों
यही सत्य ही सत्य है
-रमेश चौहान
नारी नर एक समान
मां बहना पुत्री हुई, हुई पत्नि अवधूूत ।।
हे पुरूष तुम संतान दे, नारी को नारी कियेे ।।
नर से नारी का और नारी से नर का सम्मान है ।।
अस्ितत्व नही है, किसी तीसरे से ।।
जग का ऐसा विधान, विधाता को भी ना भाये ।।
-रमेेश चौहान
हम आजाद है हम आजाद है
हम आजाद है हम आजाद है
नदीयां बहती करती कलकल
हम आजाद है हम आजाद है
तरू शाखा लहराये और गाये
हम आजाद है हम आजाद है
मृग उछलते नाचते गाते गीत
हम आजाद है हम आजाद है
मयूर पसारे पंख नाचे गाये
हम आजाद है हम आजाद है
तन प्रफूल्लित मन प्रफूल्लित
हम आजाद है हम आजाद है
मन सोचे प्रकति अनुकूल
तन झूमे प्रकृति अनुकूल
प्रकृति अनुशासन में रहके बोले
हम आजाद है हम आजाद है ।।
अब जमाना लग रहे रूपहले
याद आ रहा है मुझे एक बात,
मेरे दादाजी ने जो कहे एक रात ।
धरती पर स्वर्ग लगते थे पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
भुले बिसरे से लगते अब हमारे संस्कार,
परम्पराओं पर भारी पड़ रहे अब नवाचार ।
परम्पराओं पर जान छिड़कते थे लोग पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
मेरे माता पिता ने सिखये जो रीति,
तेरे पापा उसे ही तो कह रहे कुरीति ।
हर रीति में नीति होते थे पहले
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
कहते अब ‘हम दो हमारे दो‘ प्यारे,
हमें क्या रहने दो और रिष्ते सारे ।
एक छप्पर तले जीते थे हम पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
अब मान कहां धरम ईमान का,
अब कीमत कहां जुबान का ।
अब कहां छोटे बड़े का मान है,
सभी के सम्मान होते थे पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
मर्यादाओं का सीमा टूट रहे,
युवक युवती मजे लूट रहे ।
अब चेहरा श्वेत होवे न श्याम
मुंह काले हो जाते थे पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
दाम्पत्य जीवन टूट रहे,
नर नारी में आक्रोश फूट रहे ।
पति पत्नि का सम्मान आ गया बाजार,
जो घर के अंदर कैद होते थे पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
परिवार के आधार टूट रहे,
परम्पराओं के दामन छूट रहे ।
संस्कार पथ छोड़े हो रहे ये हाल,
‘सादा जीवन उच्च विचार‘ से जीते थे पहले,
अब जमाना लग रहे रूपहले ।
गुरू
अंधे का लाड़ी बन मार्ग दिखाता है गुरू ।
कहते है ब्रह्मा बिष्णु महेश है चाकर आपके गुरू,
निज सर्मपण से पड़ा चरण आकर आपके गुरू ।
न पूजा न पाठ न ही है मुझको कोई ज्ञान गुरू,
चरण शरण पड़ा बस निहारता आपके चरणकमल गुरू ।
सारे अपराधो से सना तन मन है मेरा गुरू,
अपराध बोध से चरण पड़ा तेरे गुरू ।
दयावंत आप हे कृपालु भी आप है गुरू,
दया की नजर से मुझे एक बार निहारो गुरू ।
अपनी कलम की नोक से
क्षितिज फलक पर,
मैंने एक बिंदु उकेरा है ।
भरने है कई रंग,
अभी इस फलक पर,
कुंचे को तो अभी हाथ धरा है ।
डगमगाती पांव से,
अंधेरी डगर पर,
चलने का दंभ भरा है ।
निशा की तम से,
चलना है उस पथ पर,
जिस पथ पर नई सबेरा है ।
राही कोई और हो न सही,
अपने आशा और विश्वास पर,
अपनो का आशीष सीर माथे धरा है ।
एक गौरेया की पुकार
हे बुद्विमान प्राणी हमारे जीवन का क्या है मोल ।
अपने हर प्रगति को अब तो जरा लो तोल,
सृष्टि के कण-कण में दिया है तूने विष घोल ।
क्या हम नही कर सकते कल कल्लोल,
क्यो हो रही हमारी नित्य क्रिया कपोल ।
इस सृष्टि में क्या हम नही सकते हिल-डोल,
हे मनुज अब तो अपना मनुष्यता का पिटारा खोल ।
जो तेरा है वो मेरा भी है सारा सृष्टि-खगोल,
फिर क्यो बिगाड़ते रहे हो हमारा भूगोल ।
कर दो अर्पण
क्यों रो रही है भारत माता ।
उठो वीर जवान बेटो,
भारत माता का क्लेश मेटो ।
क्यों सो रहे हो पैर पसारे
जब छलनी सीने है हमारे ।
तब कफन बांध आये हम समर,
आज तुम भी अब कस लो कमर ।
तब दुश्मन थे अंग्रेज अकेले
आज दुश्मनों के लगे है मेले ।
सीमा के अंदर भी सीमा के बाहर भी,
देष की अखण्ड़ता तोड़ना चाहते है सभी ।
कोई नक्सली बन नाक में दम कर रखा है,
कोई आतंकवादी बन आतंक मचा रखा है ।
चीन की दादागीरी पाक के नापाक इरादे,
कुंभकरणी निद्रा में है संसद के शहजादे ।
अब कहां वक्त है तुम्हारे सोने का,
नाजुक वक्त है इसे नही खोने का ।
ये जमी है तुम्हारी ये चमन हैं तुम्हारे,
तुमही हो माली तुमही हो रखवारे ।
श्वास प्रश्वास कर दो तुम समर्पण,
तन मन सब मां को कर दो अर्पण ।
..............‘‘रमेश‘‘............
वजूद
आपका वजूद
मेरे लिये है,
एक विश्वास ।
एक एहसास .....
खुशियों भरी ।
वजूद,
आपका वजूद
मेरे साथ रहता,
हर सुख में
हर दुख में
बन छाया घनेरी ।
वजूद,
आपका वजूद
मेरा प्यार ..
..............‘‘रमेश‘‘............
वर्षागीत
श्यामल घटा घनेरी छाई,
शीतल शीतल नीर है लाई ।
धरती प्यासी मन अलसाई,
तपते जग की अगन बुझाई ।।
खग-मृग पावन गुंजन करते,
नभगामी नभ में ही रमते ।
हरितमा धरती के आंचल भरते,
रंभाते कामधेनु चलते मचलते ।।
कृषक हल की फाल को भरते,
धान बीज को छटकते बुनते ।
खाद बिखेरते हसते हसते,
धानी चुनरिया रंगते रंगते ।।
सूखी नदी की गोद भरने लगी है,
कल कल ध्वनि बिखेरने लगी है ।
कुछ तटबंध टूट रहे है,
कहीं कहीं मातम फूट रहे हैं ।।
घोर घोर रानी कितना बरसे पानी,
ग्राम ग्राम बच्चे बोल रहे जुबानी ।
रंग बिरंगे तितली रानी तितली रानी,
उमड़ घुमड़ के बरसे पानी बरसे पानी ।।
-रमेश दिनांक 16 जून 2013
............‘रमेश‘...........
कैसे पेश करू
अपनो को ये नजराना कैसे पेश करूं
सोने की चिडि़या संस्कारो का बसेरा
टूटता बसेरा उड़ती चिडि़या ये चित्र कैसे पेश करू
जिसने किया रंग में भंग देख रह गया दंग
उन दगाबाजो की दबंगई कैसे पेश करू
इस धरा को जिसे दिया धरोहर सम्हालने को
उन रखवारो की चोरी की किस्से कैसे पेश करूं
वो खुद को कहते है दुख सुख का साथी हमारा
भुखो से छिनते निवाले का दृश्य कैसे पेश करूं
सौपी है जिन्हे किस्मत की डोर अपनी
उन पतंगबाजों की पतंगबाजी कैसे पेश करू
सड़क पर जिनका हुआ गुजर बसर
उनके आलीशान कोठी का तस्वीर कैसे पेश करूं
गरीबो की मसीहा बनते फिरते जहां तहां
उनके भीख मांगते कटोरे को कैसे पेश करूं
फाके मस्त रहे जो बरसो उन गलियो पर
उन गलियों का बना गुलदस्ता कैसे पेश करू
..........‘‘रमेश‘‘.........................
जरा समझना भला
शब्दों से पिरोई माला कैसे लगते हैं भला
दुख की सुख की तमाम लम्हे हैं पिरोये,
विरह की वेदना प्रेम की अंगड़ाई भला
कवि मन केवल सोचे है या समझे भी
उनकी पंक्तिया को पढ़ कर देखो तो भला
जिया जिसे खुद या और किसी ने यहां
अपने कलम से फिर जिंदा तो किया भला
आइने समाज का बना उतारा कागज पर
कितनी सुंदर चित्र उकेरे है देखो तो भला
अगर किसी रंग की कमी हो इन चित्रों पर
उन रंगों को सुझा उन्हे मदद करो तो भला
..........‘‘रमेश‘‘.........................
जिस तरह
फूलों में सुगंध समाई हो जिस तरह ।
अपने से अलग उसे करूं किस तरह,
समाई है समुद्र में नदी जिस तरह ।
उसके बिना अपना अस्तित्व है किस तरह,
नीर बीन मीन रहता है जिस तरह ।
उसकी मन ओ जाने मेरी है किस तरह,
देह का रोम रोम कहे राम जिस तरह ।
अलग करना भी चाहू किस तरह,
वह तो है प्राण तन में जिस तरह ।
..........रमेश‘......
क्यों रूकते हो
बढ़ने दो इन बढ़े हुये कदमों को, इसे क्यों रोकते हो ।
मंजिल है अभी दूर, कठिनाईयों से क्यों डरते हो ।।
ठान लिये हो जब अपना वजूद बनाना तो क्यो रूकते हो ।
चढ़नी है अभी चढ़ाई तो ऊंचाई देख क्यों डरते हो ।।
रात का अंधेरा सदा छाया रहता है ऐसा तुम क्यो सोचते हो ।
अंधेरे को चिरता दिनकर है आया फिर तुम क्यों रूकते हो ।।
चिंटी कितने बार गिरता फिर सम्हलता है तो तुम क्यों रूके हो।
पक्षी भी तिनके तिनके से घोसला बुने है तो तुम क्यों नही बुनते हो ।।
कौआ भी गागर में कंकड़ डाल पानी पी लिया तो तुम क्यों नही पिते हो ।
छोड़ दुनिया की आस अपने ही दम पर अपना जीवन क्यों नही जिते हो ।।
............‘‘रमेश‘‘.......................
देखी है हमने दुनिया
फूक से पहाड उडाने वाले,
कागज की किस्ती भी नही चला पाते है ।
देखी है हमने दुनिया,
आसमान से चांद सितारे तोड लाने वाले,
जीवन भर साथ निभा भी नही पाते ।
देखी है हमने दुनिया,
नैनो की भाषा समझने वाले,
चीख पुकार भी सुन नही पाते ।
देखी है हमने दुनिया,
इश्क को जिस्म की अरमा समझने वाले,
इस जहां में किसी से इश्क निभा नही पाते ।।
मधुर मधुर याद
संस्मरण आकाश में उड़ती, मन कलरव गानसुनाती ।।
बालगीत गाकर मुझको मां के गोद में सुलाती ।
लोरी गा थपकी दे कर नींदिया को है बुलाती ।
मित्रों की आवाज दे बचपना याद दिला रहे ।
कंचे, गिल्ली-डंडा, सब कुछ याद आ रहे ।
स्कूल का बस्ता, गुरूजी का बेद कहां भुलाये ।
गुरूजी का ज्ञान जीवन में आज काम आये ।
स्कूल का सुंदर चित्र उमड़ घुमड़ रहा है ।
साथीयों का मस्ती यादें उधेंड़ रहा है ।
खिला था जब जीवन में प्यार का मधु अंकुर ।
ओ हंसना, ओ मुस्कुराना और बातों में मस्गुल ।
किसी से आंखे चार हुआ था, हमें किसी से प्यार हुआ था ।
जिसको हमने और जिसने हमको अपने में जिया था ।
साथ में जीने मरने की बातें तो कहीं पर ओ हौसला कहां लिया था ।
घर परिवार और समाज के नाम अपना प्यार बलिदान किया था ।
नदी के दो किनारे बीच जीवन चंचल धारा सी बह रही है ।
ये मधुर यादें तो हैं जो संस्मरण के चिथडे को सी रही है ।
दिन रात के इस जीवन में एक नई रोषनी का आगमन हुआ ।
जीवन सहचरंणी का मेरे जीवन में प्रार्दापन हुआ ।
ष्वेत जीवन तब तो रंगीन हुये, अब तो जीवन उसे के आधीन हुये ।
फुलवारी में सुंदर दो फूल खिले, जीवन की आस उसी से जा मिले ।
मन पक्षी उड़ते आकाष आ पहुॅचे पुनः मेरे पास ।
अब तो मै बैठा हूॅ दुनियादारी के चिंता में उदास ।।
................‘‘रमेश‘.................
बढ़ने दो इन बढ़े हुये कदमों को
मंजिल है अभी दूर, कठिनाईयों से क्यों डरते हो ।।
ठान लिये हो जब अपना वजूद बनाना तो क्यो रूकते हो ।
चढ़नी है अभी चढ़ाई तो ऊंचाई देख क्यों डरते हो ।।
रात का अंधेरा सदा छाया रहता है ऐसा तुम क्यो सोचते हो ।
अंधेरे को चिरता दिनकर है आया फिर तुम क्यों रूकते हो ।।
चिंटी कितने बार गिरता फिर सम्हलता है तो तुम क्यों रूके हो।
पक्षी भी तिनके तिनके से घोसला बुने है तो तुम क्यों नही बुनते हो ।।
कौआ भी गागर में कंकड़ डाल पानी पी लिया तो तुम क्यों नही पिते हो ।
छोड़ दुनिया की आस अपने ही दम पर अपना जीवन क्यों नही जिते हो ।।
...............................‘‘रमेश‘‘..........................
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