उदित हुई संस्कार नई है, आई नूतन बेला ।
मंदिरों पर है वीरानी, मदिरालय पर मेला ।।
मंदिरों पर है वीरानी, मदिरालय पर मेला ।।
सुख दुख का सच्चा साथी, अब मदिरा को माने ।
ईश्वर को पत्थर की मूरत, नए लोग हैं जाने ।।
ईश्वर को पत्थर की मूरत, नए लोग हैं जाने ।।
दुग्धपान ना रुचते अब तो, बहुधा मांसाहारी ।
युवा वृद्ध वा अबोध बच्चे, दिखते हैं व्यभिचारी ।।
युवा वृद्ध वा अबोध बच्चे, दिखते हैं व्यभिचारी ।।
स्वार्थ की डोर गगनचुंबी है, धरती को जो बांटे ।
अपनों में भी लोग यहां अब, मेरा कहकर छांटे ।।
अपनों में भी लोग यहां अब, मेरा कहकर छांटे ।।
लोक मर्यादा बंधन लगते, अब नवीन पीढ़ी को ।
सीधे-सीधे मंजिल चढ़ते, तज घर की सीढ़ी को ।।
घर परिवार टूटता अब तो, अधिकार जताने से ।
नारी नर में द्वेष बढ़ा है, जागृति दिखलाने से ।।
कल की बातें हुई पुरानी, नई सोच आने से ।
संस्कार विहिन लोगों के अब, शिक्षित कहलाने से ।
शिक्षा नहि संस्कार चाहिए, समता दिखलाने को ।
भौतिकता को तज दो बंदे, आत्म शांति पाने को ।।
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