‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

नारी का बहू रूप

 नारी का बहू रूप


नारी नाना रूप में, बहू रूप में सार । मां तो बस संतान की, पत्नी का पति प्यार । पत्नी का पति प्यार, मात्र पति को घर जाने । बेटी पन का भाव, मायका बस को माने ।। सास-ससुर परिवार, बहू करती रखवारी । बहू मूल आधार, समझ लो हर नर नारी ।।


नर के सारे काम में, दक्ष हुई अब नार ।
नारी के हर काम को, करने नर तैयार ।।
करने नर तैयार, काम में अंतर कैसे ।
गढ़ना घर परिवार, पुरुष ना नारी जैसे ।
सुन लो कहे 'रमेश', सभी नारी घर के ।
महिला से परिवार, नहीं हो सकता नर के ।।

जनता जनार्दन !

जनता जनार्दन !

वाह करते

वाह करते है लोग

नेताओं पर

जब कटाक्ष होवे

व्यवस्थाओं की

कलाई खोली जाए

वही जनता 

बंद कर लेते हैं

आँख, कान व मुॅंह

अपनी गलती में

क्या ऐ जनता

व्यवस्था का अंग है?

लोकतंत्र में

नेताओं का जनक?

खुद सुधरेंगे

व्यवस्था सुधरेगी

खुद से प्रश्न

पूछिए भला आप

भ्रष्टाचार लौ

धधकाया नहीं है

आहुति डाल

नियम खूंटी टांग

काम नहीं किए हो

सेंध लगाए

सरकारी योजना

नहीं डकारे

सकरी गली

किसके कारण हैं

नदी-नालों का

डगर कौन रोके

कुॅंआ-बावली

घासभूमि तालब

कहां लुप्त है

जंगल और खेत

किसके घर

लाख उपाय ढूँढ़े

टैक्स बचाने

कमर कस कर

तैयार कौन?

व्यवस्था को हराने

अकेले नेता?

केवल कर्मचारी??

जनता जनार्दन !


मन की आकांक्षा

मन की आकांक्षा
(चौपाई)



अधिकारों से कर्तव्य बड़ा । जिस पर जड़ चेतन जीव खड़ा

धर्म नहीं हर कर्म अमर है । मौत क्या यह जीवन समर है


जीवन को हम सरल बनायें । चुनौतियों को विरल बनायें

नयनों में क्यों नीर बहायें । दृग को पहरेदार बनाये


देह नहीं मन को दुख होता । नयन नहीं अंतस ही रोता

मन चाहे तो दुख सुख होवे । मन चाहे तो सुख में रोवे


कष्टों से माँ शिशु जनती है । पर मन में तो सुख पलती है

दुखद विदाई बेटी का पर । दृग छलकें खुशियां धर


पीर देह की नहिं मन की गति । मन में यदि चिर-नूतन मति

मन की आकांक्षा वह कारक । मन की मति सुख-दुख धारक


-रमेश चौहान


कोराेना का रोना

 कोरोना का रोना
(कुण्‍डलियॉं)



कोरोना का है कहर , कंपित कुंठित लोग ।

सामाजिकता दांव पर, ऐसे व्यापे रोग ।

ऐसे व्यापे रोग, लोग कैदी निज घर में ।

मन में पले तनाव, आज हर नारी नर में ।।

सुन लो कहे रमेश, चार दिन का यह रोना ।

धरो धीर विश्वास, नष्ट होगा कोरोना ।


तन से दूरी राखिये, मन से दूरी नाहिं ।

मन से दूरी होय जब, मन से प्रीत नसाहिं ।

मन से प्रीत नसाहिं,  अगर कुछ ना बाेलो गे ।

करे न तुम से बात, तुमहिं सोचो क्‍या तौलो गे ।

सुन लो कहे 'रमेश', चाहिए साथी मन से ।

किया करें जी फोन, भले दूरी हो तन से ।।


घृणा रोग से कीजिये, रोगी से तो नाहिं ।

रोगी को संबल मिलत, रोग देह से जाहिं ।

रोग देह से जाहिं, हौसला जरा बढ़ायें ।

देकर हिम्‍मत धैर्य, आत्‍म विश्‍वास जगायें ।।

सुन लो कहे रमेश, जोड़ भावना लोग से ।

दें रोगी को साथ, घृण हो भले रोग से ।।

-रमेश चौहान

राष्ट्रधर्म ही धर्म बड़ा है

राष्ट्र धर्म ही  धर्म बड़ा है
(सरसी छंद)


राष्ट्र धर्म ही  धर्म बड़ा है, राष्ट्रप्रेम ही प्रेम ।
राष्ट्र हेतु ही चिंतन करना, हो जनता का नेम ।

राष्ट्र हेतु केवल मरना ही, नहीं है देश भक्ति ।
राष्ट्रहित जीवन जीने को, चाहिए बड़ी शक्ति ।

कर्तव्यों से बड़ा नहीं है, अधिकारों की बात ।
कर्तव्यों में सना हुआ है, मानवीय सौगात ।

अधिकारों का अतिक्रमण भी, कर जाता अधिकार ।
पर कर्तव्य तो बांट रहा है , सहिष्णुता का प्यार ।

राष्ट्रवाद पर एतराज क्यों, और क्यों राजनीति ।
राष्ट्रवाद ही राष्ट्र धर्म है, लोकतंत्र की नीति ।।

राष्ट्रवाद ही एक कसौटी, होवे जब इस देश ।
नहीं रहेंगे भ्रष्टाचारी, मिट जाएंगे क्लेश ।।

-रमेश चौहान

सोच रखिये चिर-नूतन (नववर्ष की शुभकामना)

सोच रखिये चिर-नूतन
(कुण्‍डलियॉं)

नववर्ष की शुभकामना

 नित नव नूतन नवकिरण, दिनकर का उपहार ।

भीनी-भीनी भोर से, जाग उठा संसार ।।

जाग उठा संसार, खुशी नूतन मन भरने ।

नयन नयापन नाप, करे उद्यम दुख हरने ।।

सुन लो कहे ‘रमेश’, सोच रखिये चिर-नूतन ।

वही धरा नभ सूर्य, नहीं कुछ नित नव नूतन ।।


कैसे पढ़ा-लिखा खुद को बतलाऊँ

 

कैसे पढ़ा-लिखा खुद को बतलाऊँ
(चौपाई छंद)


पढ़-लिख कर मैंने क्‍या पाया ।
डिग्री ले खुद को भरमाया ।।
काम-धाम मुझको ना आया ।
केवल दर-दर भटका खाया ।।

फेल हुये थे जो सहपाठी ।
आज धनिक हैं धन की थाती ।
सेठ बने हैं बने चहेता ।
अनपढ़ भी है देखो नेता ।।

श्रम करने जिसको है आता ।
दुनिया केवल उसको भाता ।।
बचपन से मैं बस्‍ता ढोया ।
काम हुुुुनर मैं हाथ न बोया ।।

ढ़ूढ़ रहा हूँ कुछ काम मिले ।
दो पैसे से परिवार खिले ।।
पढ़ा-लिखा मैं तनिक अनाड़ी ।
घर में ना कुछ खेती-बाड़ी ।।

दुष्‍कर लागे जीवन मेरा ।
निर्धनता ने डाला डेरा ।।
दो पैसे अब मैं कैसे पाऊँ ।
पढ़ा-लिखा खुद को बतलाऊँ ।।

-रमेश चौहान


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