मन की आकांक्षा
(चौपाई)
अधिकारों से कर्तव्य बड़ा । जिस पर जड़ चेतन जीव खड़ा
धर्म नहीं हर कर्म अमर है । मौत क्या यह जीवन समर है
जीवन को हम सरल बनायें । चुनौतियों को विरल बनायें
नयनों में क्यों नीर बहायें । दृग को पहरेदार बनाये
देह नहीं मन को दुख होता । नयन नहीं अंतस ही रोता
मन चाहे तो दुख सुख होवे । मन चाहे तो सुख में रोवे
कष्टों से माँ शिशु जनती है । पर मन में तो सुख पलती है
दुखद विदाई बेटी का पर । दृग छलकें खुशियां धर
पीर देह की नहिं मन की गति । मन में यदि चिर-नूतन मति
मन की आकांक्षा वह कारक । मन की मति सुख-दुख धारक
-रमेश चौहान