‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

कुण्डलियाँ यूँ बोलती है

-कुण्डलियाँ यूँ बोलती है-

1.
बेटा-बेटी एक सम, सौ प्रतिशत है सत्य ।
बेटा अब कमतर लगे, यह भी है कटु तथ्य ।।
यह भी है कटु तथ्य, उच्च शिक्षा वह छोड़े ।
अपने आप हताश, नशा से नाता जोड़े ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, हुआ वह अब सप्रेटा ।
बेटी के समकक्ष, लगे कमतर अब बेटा ।।
(सप्रेटा-मक्खन रहित दूध)

2.
दादा-दादी माँ-पिता, भैया-भाभी संग ।
चाचा-चाची और हैं, ज्यों फूलों का रंग ।।
ज्यों फूलों का रंग, बाग को बाग बनाते ।
सब नातों का साथ, एक परिवार कहाते ।।
सुन लो कहे ‘रमेश’, करें खुद से खुद वादा ।
एक रखें परिवार, रहे जिसमें जी दादा ।।

3.
अंधे-बहरे है नहीं, फिर भी रहते मौन ।
नशा नाश का मूल है, जाने यहाँ न कौन ।।
जाने यहाँ न कौन, जहर यह धीमा होता ।
मृत्यु पूर्व ही खाय, पीर सागर वह गोता ।।
सुनलो कहे ‘रमेश’, मूल हैं इसके गहरे ।
तोड़ों इसके जाल, रहो मत अंधे-बहरे ।।

4.
दुनिया सचमुच गोल है, जहाँ समय बलवान ।
कल दहेज के नाम पर, बेटी देती जान ।
बेटी देती जान, लोभियों के फंदों पर ।
बेटे जिंदा लाश, आज झूठे केसों पर ।।
देख रहा ‘चौहान’, आज कानूनी मुनिया ।
कैसे देती मात, गोल है सचमुच दुनिया ।।

5.
कहती शिक्षा स्कूल से, सुन लो मेरी बात ।
भेदभाव को छोड़कर, बांट ज्ञान सौगात ।।
बांट ज्ञान सौगात, लोग होवें संस्कारी ।
मैं तो नहीं बिकाऊ, बनो मत तुम व्यापारी ।।
तेरे इस करतूत, पीर मैं सहती रहती ।
मुझे न कर बदनाम, स्कूल से शिक्षा कहती ।।

6.
पैसा सबको चाहिये, जीवित रखने प्राण ।
काम हमें तो चाहिये, नहीं चाहिये दान ।।
नहीं चाहिये दान, निरिह ना हमें बनायें ।
हाथों में है जान, काम कुछ हमें बतायें ।।
पढ़ा लिखा ‘चौहान’, निठल्ला घूमे कैसे ।
काम बिना ना मान, चाहिये सबको पैसे ।।

7.
बेजाकब्जा गाँव में, गोचर बचा न शेष ।
ट्रेक्टर निगले बैल को, गौधन अब लवलेश ।।
गौधन अब लवलेश, पराली जले न कैसे ।
पर्यावरण वितान, रहे चाहे वह जैसे ।।
हैं बेखबर ‘रमेश’, करे वह केवल कब्जा ।
हर कारण के मूल, एक है बेजाकब्जा ।।

8.
मॉर्डन होने का चलन, तोड़ रहा परिवार ।
शिक्षित अरू धनवान ही, इसके सपनेकार ।।
इसके सपनेकार, बाप-माँ को हैं छोड़े ।
वृद्धाश्रम में छोड़, कर्तव्यों से मुख मोड़े ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, साक्ष्य हैं इसके वॉर्डन ।
मांगे जो अधिकार, वही बनते हैं मॉर्डन ।।


-रमेशकुमार सिंह चौहान

बच्चे समझ न पाय, दर्द जो मन हैं मेरे

मेरे घर संस्कार का,  टूट रहा दीवार ।

छद्म सोच के अस्त्र से, करे बच्चे प्रतिकार ।।

करे बच्चे प्रतिकार, कुपथ का बन सहचारी  ।

मौज मस्ती के नाम, बने ना कुछ व्यवहारी।।

हृदय रक्त रंजीत, कुसंस्कारों के घेरे ।

बच्चे समझ न पाय, दर्द जो मन हैं  मेरे ।।


-रमेश चौहान

राम राज में

एक घाट एक बाट, सिंह-भेड़  साथ-साथ,
रहते  थे जैसे पूर्व, रामजी के राज में  ।
शोक-रोग राग-द्वेश, खोज-खोज फिरते थे,
मिले ठौर बिन्दु सम,  अवध समाज में  ।।
दिन फिर फिर जावे,जन-जन साथ आवे
जाति-धर्म भेद टूटे, राम नाम  साज में ।
राम भक्त जान सके, और पहचान सके, 
राम राम कहलाते, अपने ही काज में  ।।

-रमेश चौहान 

नाहक करे बवाल

मंदिर मेरे गाँव का,
ढोये एक सवाल

पत्थर की यह मूरत पत्थर,
क्यों ईश्वर कहलाये
काले अक्षर जिसने जाना,
ढोंग इसे बतलाये

शंखनाद  के शोर से,
होता जिन्हें मलाल

देख रहा है मंदिर कबसे,
कब्र की पूजा होते
लकड़ी का स्तम्भ खड़ा है
उनके मन को धोते

प्रश्न वही अब खो गया,
करके नया कमाल

तेरे-मेरे करने वाले,
तन को एक बताये
मन में एका जो कर न सके
ज्ञानी वह कहलाये

सूक्ष्म बुद्वि तन कर खड़ा,
स्थूल चले है चाल

पूजा तो पूजा होती है,
भिन्न न इसको जानों
मन की बाते मन ही जाने,
आस्था इसको मानों

समझ सके ना बात जो,
नाहक करे बवाल

-रमेशकुमार सिंह चौहान

अपनी आँखों से दिखे,

अपनी आँखों से दिखे, दुनिया भर का चित्र ।
निज मुख दिखता है नहीं, तुम्ही कहो हे! मित्र ।
तुम्हीं कहो हे! मित्र, चेहरा मेरा कैसा ।
दुनिया से है भिन्न, या कि वैसा का वैसा ।।
बंधा पड़ा "रमेश", स्याह मन के काँखों से।
कैसे अंतस देह, पढ़े अपनी आँखों से ।।
-रमेश चौहन

मानववादी

गुरु साधन ईश्वर साध्य है, पथ पगडंडी धर्म ।
नश्वर मनुष्य साधक यहां, जिसके हाथों कर्म ।।

केवल परिचय देखकर, करते आप कमेंट ।
कुछ तो देखा कीजिये, रचना का कांटेंट ।।

अपने निज अभिमान को, माने श्वास समान ।
श्वास चले जीवित रहे, वरना मौत सुजान ।।

कर्म कली का कल्पतरु, सकल कामना लाय ।
सुयश कर्म ही धर्म है, अपयश धर्म नशाय ।।

नश्वर यह संसार है, नाशवान हर चीज ।
मैं मेरा का दंभ यह, लोभ मोह का बीज ।

दुखी सकल संसार है, केवल दुख का भेद।
वह तो धन का है दुखी, इसे रोग का खेद ।।

धर्म अटल अरु सत्य है, धर्म सत्य का नाम ।
मानवता सत्कर्म ही, इसकी निज पहचान ।

कल की बातें स्याह थीं, अब भी तो है स्याह ।
कल मुश्किल निर्वाह था, अब भी मुश्किल निर्वाह ।।

मानववादी का हुँकार जो, भरता है दिन रात ।
बात-बात में वर्ग भेद की, करता फिरता बात ।।

विपत काल पर मित्र का, संकट बेला भ्रात ।
धन हिनता पर पत्नि की, होते परख यथार्थ ।।

मातु-पिता को पालिये, मुझसे कहती है बहन ।
सास-ससुर के मान का, करती रहती जो दहन ।।

- रमेशकुमार सिंह चौहान

बहाने भी खूब सिखें हैं हम,






रात चाहे शरद का अमावस हो, भोर का पथ रोक नहीं सकता
लक्ष्य चाहे झुरमुटों में गुम हो, अर्जुन दृष्टि में धूल झोक नहीं सकता

ढूंढ़ने वाले बिखरे रेत क्या ढेर से भी सुई ढूंढ निकाल लेते हैं
बहाने भी खूब सिखें हैं हम, पत्थर पर कोई सिर ठोक नहीं सकता

-रमेश चौहान

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