‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

शिक्षा: एक अच्छा नौकर है, मालिक नहीं

 



हमने विज्ञान का निबंध

रटा था,

विज्ञान एक अच्छा नौकर है,

मालिक नहीं


आज एक समाचार पढ़ा

एक मेजर के तीन लड़के थे

खूब-पढ़ाया लिखाया

ऐशों आराम दौलत थमाया


समय चक्र चलता गया,

मेजर की पत्नी चल बसी

बेटे पत्नियों से युक्त

मेजर बूढ़ा हो चला


हाथ-पैर असक्‍त

जुबान बंद

वह बिस्तर का 

कैदी रह गया 


धन का कमी था नहीं

बेटे बाप को 

नौकर भरोसे छोड़

विदेश चले गए

मेजर के बेटे होने का

रौब दिखाते हुए


नौकर भला इंसान

सेवा करता नित

बिस्तर के कैदी का


एक दिन नौकर

गया बाजार

खरीदने मेजर के लिए

जरुरी सामान


पर नियति ने

उसे ठोकर मारी

दुर्घटना में वह

दुनिया को कह गया

अलविदा


मेजर बिस्तर का कैदी

बंद कमरे में

बंद हो गया

बंद हो गई

उसकी जीवन लीला


महीनों बाद

बेटे लौटे

विदेश के सैर से

कंकाल पड़ा मिला

बाप का नहीं

मेजर का

मेजर के बेटों को


न जाने

ऐसे कितने

माँ-बाप

मरते रहे हैं

मरते रहेंगे


संतानों को

पढ़ा-लिखा कर,

साहब बना कर

अपने सुख चैन

अपनी जिंदगी

गंवाकर


यह शिक्षा

कान्वेंट का

साहब बनाने,

बच्चों को 

धनवान बनाने

भौतिकता के पीछे

नैतिकता खोकर

भाग जाने का

एक अच्‍छा मालिक

हो नहीं सकता

विज्ञान की तरह


मुखौटा


उनके चेहरे पर

महीन मुख श्रृंगारक लेप सा,

भावों और विचारों का

है अदृश्‍य मुखौटा



मानवतावादी और सेक्‍युलर

कहलाने वाले चेहरों को

मैं जब गौर से देखा,

उनके चेहरे पर

पानी उलेड़ा 

तो मैंने पाया

न मानवतावादी मानवतावादी है

न ही सेक्‍युलर, सेक्‍युलर


अपने विचारों के

स्वजाति बंधुओं को ही

वे समझते हैं मानव

सेक्‍युलर भी 

विचार और आस्था से भिन्‍न

प्राणियों को मानव

कहां समझते हैं ?


अपने विचारों को

जहां,जिस पर पल्‍लवित पाया

वहां की घटनाएं

बलत्‍कार, अत्‍चार पर

शोर करते 

चिखते चिल्‍लाते हैं,

बाकी पर

गूंगे, बहरे और अंधे का

किरदार निभाते हैं

एक सफल 

अभिनेता की भांति


लकड़ी के खंभे

पत्थर के चबूतरे पर

वस्त्रों की बर्बादी

देख न पाने वाले

मूर्ति और दूध पर

सवाल उठाते हैं


जन्‍म से बनी जाति को

समूल नष्ट करने जो

मुखर दिखते हैं

अपनी ही जाति को

जीवित रखने

अनेक संगठन

खड़े कर रखे हैं

चौपाल लगाकर

सरकार को डरा कर

मांग रहे हैं 

केवल और केवल

अपने लिए

सुविधाएं

आरक्षण की बैसाखी


सेक्‍युलर को

देखना क्यों पड़ता है ?

पूछना क्यों पड़ता है ?

मानना क्यों पड़ता है ?

किसी का धर्म और पंथ


सेक्युलर देश में

सरकारी पर्चो पर

क्यों जीवित है  ?

धर्म और जाति का

वह कॉलम


केवल राजनेताओं के नहीं,

न ही अभिनेताओं के

बुद्धिजीवियों के

चेहरों पर भी

मुझे दिखते हैं मुखौटे ।


चिंता या चिंतन

अनसुनी बातें 
सुनता रहा मैं 
अनकही बातें 
कहता रहा मैं 
अनदेखी 
दृश्य को देखकर ।

विचारों की तंतु
मन विबर की लार्वा से
तनता जा रहा था
उलझता-सुलझता हुआ
मन को हृदय की 
गहराई में देखकर ।।

चिंता और चिंतन 
गाहे-बगाहे साथ हो चले
नैतिकता का दर्पण में
अंकित छवि को देखकर ।।

आ लौट चलें

 आ लौट चलें,

चकाचौंध से, दृश्य प्रकाश पर
शोर-गुल से, श्रव्य ध्वनि पर
सपनों की निद्रा से, भोर उजास पर
आखिर शाखाओं का अस्तित्व मूल से तो ही है ।

लौट चलें
गगन की ऊँचाई से, धरा धरातल पर
सागर की गहराई से, अवलंब भू तट पर
शून्य तम अंधियारे से, टिमटिमाते लौ के हद पर
आखिर मन के पर को भी थाह चाहिए यथार्थ का ।।

आ लौट चलें
दूसरों के कंधों से, अपने पैरों पर
रील लाइफ से, रीयल लाइफ पर
आखिर कभी न कभी
कास्टूम उतार कर, मेकअप धोना होगा

आ लौट चलें
प्रदूषण के धूंध से, विरल वायु में
कांक्रिट के पहाड़ों से, नर्म धूसर धूल पर
कटिले दंतैल बंजर से, उर्वर सौंधी माटी पर
आखिर बीज को पौधा होने के लिए मिट्टी ही चाहिए

आ लौट चलें
प्रदर्शनीय के टंगे शब्दों से, अपनी बोली पर
झूठ से सने रसगुल्ले की मीठास से, सत्य के कड़वे नीम पर
अपनी प्रकृति, अपना संस्कार, अपना व्यवहार
सनातन था, सनातन है, सनातन ही रहेगा
-रमेश चौहान

ओम

भोले बाबा शंभु हर,  हर-हर शंकर ओम ।
बोल बम्ब की नाद से, गूंज रहा है व्योम ।।
गूंज रहा है व्योम, बम्ब भोले का नारा ।
बोल बम्ब जयकार, लगे भक्तों को प्यारा ।।
कांवर लेकर कांध,  राह पर भगतन बोले ।
करें कामना पूर्ण, शंभु शिव बाबा भोले ।।


आग लगी पेट्रोल पर (दोहागीत)

आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।

राज्य, केन्द्र सरकार को, तनिक नहीं है क्लेश ।।


मँहगाई छूये गगन, जमीदोज है आय ।

जनता अपनी पीर को, कैसे किसे बताय ।।

राज व्यपारी का दिखे, नेता भी अलकेश ।

आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।

(अलकेश-कुबेर)


राज्य कहे है केन्द से, और केन्द्र तो राज्य ।

कंदुक के इस खेल का, केवल दिखे सम्राज्य ।।

इसका करें निदान अब, तज नाहक उपदेश ।

आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।।


तिल-तिल है दिल जल रहा, जले रसोई गैस ।

खाद्य तेल सब्जी सभी, दिखा रहे हैं टैस ।।

मँहगाई के उत्पात से, जनता है निर्वेश ।

आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।।


अटल अटल ना रह सका, उछले थे जब प्याज ।

मँहगाई के मूल्य का, बचा रहेगा ब्याज ।।

कर लो सोच विचार अब, हो जो आप प्रजेश ।

आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।।


अँकुश व्‍यपारी पर नहीं

 जनता मेरे देश का, दिखे विवश लाचार ।

अँकुश व्‍यपारी पर नहीं, सौ का लिए हजार ।।

सौ का लिए हजार, सभी लघु दीर्घ व्‍यपारी ।

लाभ नीति हो एक, देश में अब सरकारी ।।

कितना लागत मूल्‍य,  बिक्री का कितना तेरे ।

ध्‍यान रखें सरकार,  विवश हैं जनता मेरे ।। 


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