छोड़ बहत्तर सौ करें, आरक्षण है नेक ।
संविधान में है नहीं, मानव-मानव एक ।।
मानव-मानव एक, कभी होने मत देना ।
बना रहे कुछ भेद, स्वर्ण से बदला लेना ।।
घुट-घुट मरे "रमेश", होय तब हाल बदत्तर ।
मात्र स्वर्ण को छोड़, करें सौ छोड़ बहत्तर ।।
आरक्षण सौ प्रतिशत करें
वेद
श्रीमुख से है जो निसृत, कहलाता श्रुति वेद ।
मानव-तन में भेद क्या, नहीं जीव में भेद ।।
नहीं जीव में भेद, सभी उसके उपजाये ।
भिन्न-भिन्न रहवास, भिन्न भोजन सिरजाये ।।
सबका तारणहार, मुक्त करते हर दुख से ।
उसकी कृति है वेद, निसृत उनके श्रीमुख से ।।
-रमेश चौहान
मैं देश का (गंगोदक सवैया)
शान में मान में गान में प्राण में, जान लो मान लो मात्र मैं देश का ।
ध्यान से ज्ञान से योग से भोग से, मूल्य मेरा बने वो सभी देश का ।
प्यार से बांट के प्यार को प्यार दे, बांध मैं लिया डोर से देश को ।
जाति ना धर्म ना पंथ भी मैं नहीं, दे चुका हूँ इसे दान में देश को ।
-रमेश चौहान
हे सावन सुखधाम
सावन! तन से श्याम थे,
अब मन से क्यों श्याम
धरती शस्या तुम से होती,
नदियां गहरी-गहरी
चिड़िया चीं-चीं कलरव करती,
कुआँ-बावली अहरी ।
(अहरी=प्याऊ)
तुम तो जीवन बिम्ब हो,
तजते क्यों निज काम
धरती तुमसे जननी धन्या,
नीर सुधा जब लाये
भृकुटि चढ़ाये जब-जब तुम तो,
बंध्या यह कहलाये
हम धरती के जीवचर,
करते तुम्हें प्रणाम
तुम से जीवन नैय्या चलती,
तुम बिन खाये हिचकोले
नीर विहिन यह धरती कैसी,
जब रवि बरसाये गोले
कृपा दृष्टि अब कीजिये,
हे! सावन सुखधाम ।
हिन्दी श्लोक
आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है ।
पंचम लघु राखो जी, चारो चरण बंद में ।।
छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में ।
निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।।
अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी ।
शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।।
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राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।
मेरा मान लिये जो तो, देश ही परिवार है ।
अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।
सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से ।
अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।।
सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का ।
हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।
अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे ।
अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।।
अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला ।
अपनी कमजोरी को, रखते हैं छुपा कर ।।
अपने घर में यारों, गैरों का कुछ काम क्या ।
आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।।
होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं ।
राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से मित्र भी बड़ा ।।
भूमि अतिक्रमण का मार
नदियों पर ही बस गये, कुछ स्वार्थी इंसान ।
नदियां बस्ती में बही, रखने निज सम्मान ।।
जल संकट के मूल में, केवल हैं इंसान ।
जल के सारे स्रोत को, निगल रहे नादान ।।
कहीं बाढ़ सूखा कहीं, कारण केवल एक ।
अतिक्रमण तो भूमि पर, लगते हमको नेक ।।
गोचर गलियां गुम हुई, चोरी भय जल स्रोत ।
चोर पुलिस जब एक हो, कौन लगावे रोक ।।
जंगल नदियों से हम सभी, छिन रहे पहचान को ।
ये भी अब बदला ले रहे, तोड़ रहें इंसान को ।।
-रमेश चौहान
नारी पच्चीसा
ब्रह्माणी लक्ष्मी उमा, देवों का भी भाल ।।
देवों का भी भाल, सनातन से है माना ।
विविध रूप में आज, शक्ति हमने पहचाना ।।
सैन्य, प्रशासन, खेल, सभी क्षेत्रों में भारी ।
राजनीति में दक्ष, उद्यमी भी है नारी ।।1।।
नारी करती आज है, कारज पुरुष समान ।।
कारज पुरुष समान, अकेली वह कर लेती ।
पौरूष बुद्धि विवेक, सफलता सब में देती ।।
अनुभव करे "रमेश", नहीं कोई बेचारी ।
दिखती है हर क्षेत्र, पुरुष से आगे नारी ।।2।।
इसी रूप में पूजते, सकल जगत अरु भूप ।
सकल जगत अरु भूप, सभी कारज कर सकते ।
माँ ममता मातृत्व, नहीं कोई भर सकते ।।
सुन लो कहे "रमेश", जगत माँ पर बलिहारी ।
अमर होत नारीत्व, कहाती माँ जब नारी ।।3।।
नारी भार्या रूप में, रचती है परिवार ।।
रचती है परिवार, चहेती पति का बनकर ।
ससुर ननद अरु सास, सभी नातों से छनकर ।।
तप करके तो आग, बने कुंदन गरहारी ।
माँ बनकर संसार, वंदिता है वह नारी ।।4।।
तू चाहे तो रंक कर, तू चाहे तो भूप ।।
तू चाहे तो भूप, प्रेम सावन बरसा के ।
चाहे कर दें रंक, रूप छल में झुलसा के ।।
चाहे गढ़ परिवार, सास की बहू दुलारी ।
चाहे सदन उजाड़, आज की शिक्षित नारी ।।5।।
अपने बुद्धि विवेक से, करती है वह नाम ।।
करती है वह नाम, विश्व में भी बढ़-चढ़कर।
पर कुछ नारी आज, मध्य में है बस फँसकर ।।
भूल काज नारीत्व, मात्र हैं इच्छाचारी ।
तोड़ रही परिवार, अर्ध शिक्षित कुछ नारी ।।6।।
नारी ही परिवार को, करती सदा सनाथ ।।
करती सदा सनाथ, पतोहू घर की बनकर ।
गढ़ती है परिवार, प्रेम मधुरस में सनकर ।।
पति का संबल पत्नि, बुरे क्षण में भी प्यारी ।
एक लक्ष्य परिवार, मानती है सद नारी ।।7।।
नारी में नारीत्व का, हो पहले सामर्थ्य ।।
हो पहले सामर्थ्य, सास से मिलकर रहने ।
एक रहे परिवार, हेतु इसके दुख सहने ।।
नर भी तो कर लेत, यहाँ सब दुनियादारी ।
किन्तु नार के काज, मात्र कर सकती नारी ।।8।।
पांचाली सम हो बहू, कुंंती जैैैैसे सास ।।
कुंती जैसे सास, साथ दुख-सुख में रहती ।
साधे निज परिवार, साथ पति के सब सहती ।।
सहज बने हर सास, बहू की भी हो प्यारी ।
सच्चा यह सामर्थ्य, बात समझे हर नारी ।।9।।
पर हो निज नारीत्व पर, हर नारी को नाज ।।
हर नारी को नाज, होय नारी होने पर।
ऊँचा समझे भाल, प्रेम ममता बोने पर ।।
रखे मान सम्मान, बने अनुशीलन कारी ।
घर बाहर का काम, आज करके हर नारी ।।10।।
नारी के रूढ़ काम को, करते पुरुष सुजान ।।
करते पुरुष सुजान, पाकशाला में चौका ।
फिर भी होय न पार, जगत में जीवन नौका ।।
नारी खेवनहार, पुरुष का जग मझधारी ।
समझें आज महत्व, सभी वैचारिक नारी ।।11।।
माँ की ममता पाल्य है, हर जीवन का दंभ ।।
हर जीवन का दंभ, प्रीत बहना की होती ।
पत्नि पतोहू प्यार, सृष्टि जग जीवन बोती ।
सहिष्णुता का सूत्र, मंत्र केवल उपकारी
जीवन का आधार, जगत में केवल नारी ।।12।।
नारी का नारीत्व बिन, शेष कहाँ अस्तित्व ।
शेष कहाँ अस्तित्व, पुरुष ही हो यदि नारी ।
नारी से परिवार, बात समझो मतवारी ।।
नारी नर से श्रेष्ठ, जगत में जो संस्कारी ।
गढ़े सुदृढ़ परिवार, आत्म बल से हर नारी ।।13।।
नारी को परिवार में, होना होगा व्याप्त ।
होना होगा व्याप्त, वायु परिमण्डल जैसे ।
तन में जैसे रक्त, प्रवाहित हो वह वैसे ।।
अपने निज परिवार, निभाकर नातेदारी ।
सफल होय ससुराल, अहम तज कर हर नारी ।।14।।
चाहे घर का काम हो, चाहे बाहर स्थान ।।
चाहे बाहर स्थान, युगल जोड़ी कर सकते ।
किंतु पुरुष परिवार, कभी भी ना गढ़ सकते ।।
नारी ही परिवार, पुरुष इस पर बलिहारी ।
नारी नर का द्वंद, चलें तज कर नर नारी ।।15 ।।
कुछ-कुछ नारी आज के, दिखा रही है शान ।।
दिखा रही है शान, मायका जाये बैठे ।
मांग गुजारा खर्च, सास पति से ही ऐंठे ।।
पूछे प्रश्न "रमेश", मात्र पैसा है भारी ।
पाहन दंड समान, प्रेम बिनु नर अरु नारी ।।18।।
कछुक दिवस के बाद ही, कर बैठी हड़ताल ।
कर बैठी हड़ताल, अलग घर में है रहना ।
सास ससुर का झेल, तनिक ना मुझको सहना ।।
क्या करता वह लाल, चले उसके अनुहारी ।
मगर दिवस कुछु बाद, मायका बैठी नारी ।।19।।
तलब किए तब कोर्ट ने, पति को लियो बुलाय ।।
पति को लियो बुलाय, कोर्ट ने दी समझाइश ।
रह लो दोनों साथ, पूछ कर उनकी ख्वाहिश।।
फिर से दोनों साथ , रहे कुछ ही दिन चारी ।
फिर से एक बार, शिकायत की वह नारी ।।20।।
चले पत्नी के मायका, रहने उनके साथ ।।
रहने उनके साथ, लगे वह वहीं कमाने ।
फिर भी उनकी पत्नी, रहे ना साथ सुहाने ।।
नोकझोंक के फेर, पुरुष कुछ गलत विचारी ।
तज दूँ मैं निज प्राण, मुक्त होगी यह नारी ।।21।।
देव कृपा से पुरुष वह, जीवित है संसार ।।
जीवित है संसार, मात्र जीवित ही रहने ।
उनके सुत है एक, आजतो वियोग सहने ।।
सुन लो कहे "रमेश", पुरुष वह सदव्यवहारी ।
पर कुछ समझ न आय, खपा क्यों उनकी नारी ।।22।।
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