सावन! तन से श्याम थे,
अब मन से क्यों श्याम
धरती शस्या तुम से होती,
नदियां गहरी-गहरी
चिड़िया चीं-चीं कलरव करती,
कुआँ-बावली अहरी ।
(अहरी=प्याऊ)
तुम तो जीवन बिम्ब हो,
तजते क्यों निज काम
धरती तुमसे जननी धन्या,
नीर सुधा जब लाये
भृकुटि चढ़ाये जब-जब तुम तो,
बंध्या यह कहलाये
हम धरती के जीवचर,
करते तुम्हें प्रणाम
तुम से जीवन नैय्या चलती,
तुम बिन खाये हिचकोले
नीर विहिन यह धरती कैसी,
जब रवि बरसाये गोले
कृपा दृष्टि अब कीजिये,
हे! सावन सुखधाम ।
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