खड़े रहे हम पंक्ति, देखने नोट गुलाबी ।
वह अपने घर बैठ, दिखाते रहे खराबी ।।
पाले स्वप्न नवीन, पीर झेले अधनंगे ।
कोशिश किये हजार, कराने वह तो दंगे ।
जिसने घोला है जहर, रग में भ्रष्टाचार का ।
दंभ भरे है तंत्र वह, अपने हर व्यवहार का ।।
वह अपने घर बैठ, दिखाते रहे खराबी ।।
पाले स्वप्न नवीन, पीर झेले अधनंगे ।
कोशिश किये हजार, कराने वह तो दंगे ।
जिसने घोला है जहर, रग में भ्रष्टाचार का ।
दंभ भरे है तंत्र वह, अपने हर व्यवहार का ।।
0 Comments:
एक टिप्पणी भेजें