‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

नाहक करे बवाल

मंदिर मेरे गाँव का,
ढोये एक सवाल

पत्थर की यह मूरत पत्थर,
क्यों ईश्वर कहलाये
काले अक्षर जिसने जाना,
ढोंग इसे बतलाये

शंखनाद  के शोर से,
होता जिन्हें मलाल

देख रहा है मंदिर कबसे,
कब्र की पूजा होते
लकड़ी का स्तम्भ खड़ा है
उनके मन को धोते

प्रश्न वही अब खो गया,
करके नया कमाल

तेरे-मेरे करने वाले,
तन को एक बताये
मन में एका जो कर न सके
ज्ञानी वह कहलाये

सूक्ष्म बुद्वि तन कर खड़ा,
स्थूल चले है चाल

पूजा तो पूजा होती है,
भिन्न न इसको जानों
मन की बाते मन ही जाने,
आस्था इसको मानों

समझ सके ना बात जो,
नाहक करे बवाल

-रमेशकुमार सिंह चौहान

अपनी आँखों से दिखे,

अपनी आँखों से दिखे, दुनिया भर का चित्र ।
निज मुख दिखता है नहीं, तुम्ही कहो हे! मित्र ।
तुम्हीं कहो हे! मित्र, चेहरा मेरा कैसा ।
दुनिया से है भिन्न, या कि वैसा का वैसा ।।
बंधा पड़ा "रमेश", स्याह मन के काँखों से।
कैसे अंतस देह, पढ़े अपनी आँखों से ।।
-रमेश चौहन

मानववादी

गुरु साधन ईश्वर साध्य है, पथ पगडंडी धर्म ।
नश्वर मनुष्य साधक यहां, जिसके हाथों कर्म ।।

केवल परिचय देखकर, करते आप कमेंट ।
कुछ तो देखा कीजिये, रचना का कांटेंट ।।

अपने निज अभिमान को, माने श्वास समान ।
श्वास चले जीवित रहे, वरना मौत सुजान ।।

कर्म कली का कल्पतरु, सकल कामना लाय ।
सुयश कर्म ही धर्म है, अपयश धर्म नशाय ।।

नश्वर यह संसार है, नाशवान हर चीज ।
मैं मेरा का दंभ यह, लोभ मोह का बीज ।

दुखी सकल संसार है, केवल दुख का भेद।
वह तो धन का है दुखी, इसे रोग का खेद ।।

धर्म अटल अरु सत्य है, धर्म सत्य का नाम ।
मानवता सत्कर्म ही, इसकी निज पहचान ।

कल की बातें स्याह थीं, अब भी तो है स्याह ।
कल मुश्किल निर्वाह था, अब भी मुश्किल निर्वाह ।।

मानववादी का हुँकार जो, भरता है दिन रात ।
बात-बात में वर्ग भेद की, करता फिरता बात ।।

विपत काल पर मित्र का, संकट बेला भ्रात ।
धन हिनता पर पत्नि की, होते परख यथार्थ ।।

मातु-पिता को पालिये, मुझसे कहती है बहन ।
सास-ससुर के मान का, करती रहती जो दहन ।।

- रमेशकुमार सिंह चौहान

बहाने भी खूब सिखें हैं हम,






रात चाहे शरद का अमावस हो, भोर का पथ रोक नहीं सकता
लक्ष्य चाहे झुरमुटों में गुम हो, अर्जुन दृष्टि में धूल झोक नहीं सकता

ढूंढ़ने वाले बिखरे रेत क्या ढेर से भी सुई ढूंढ निकाल लेते हैं
न करने के लाख बहाने जिसने सीखे, उस पत्थर पर कोई सिर ठोक नहीं सकता

-रमेश चौहान

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