धोते तन की गंदगी, मन को क्यों ना धोय ।
धोये नर मन को अगर, मानवता क्यो रोय ।।
देह प्राण के मेल का, अजब गजब संयोग ।
इक इक पर अंतर्निहित, सह ना सके वियोग ।।
सोचे कागा बैठ कर, एक पेड़ के डाल ।
पेड़ चखे हैं खुद कहां , कैसे लगे रसाल ।।
पूछ रहे हो क्यों भला, हुई कौन-सी बात ।
देख सको तो देख लो, नयन छुपी सौगात ।।
सूख गया पोखर कुॅंआ, बचा नदी में रेत ।
बोल रहा बैसाख अब, आने को है जेठ।।
धोये नर मन को अगर, मानवता क्यो रोय ।।
देह प्राण के मेल का, अजब गजब संयोग ।
इक इक पर अंतर्निहित, सह ना सके वियोग ।।
सोचे कागा बैठ कर, एक पेड़ के डाल ।
पेड़ चखे हैं खुद कहां , कैसे लगे रसाल ।।
पूछ रहे हो क्यों भला, हुई कौन-सी बात ।
देख सको तो देख लो, नयन छुपी सौगात ।।
सूख गया पोखर कुॅंआ, बचा नदी में रेत ।
बोल रहा बैसाख अब, आने को है जेठ।।
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