‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

जिंदगी और कुछ भी नहीं

जिंदगी और कुछ भी नहीं, बस एक बहती हुई नदी है
छल-छल, कल-कल, सतत् प्रवाहित होना गुण जिसका

सुख-दुख के तटबंधों से बंधी, जो अविरल गतिमान
पथ के हर बाधाओं को, रज-कण जो करती रहती

जीवन वेग कहीं त्वरित कहीं मंथर हो सकता है
पर प्रवाहमान प्राणपन जिसका केवल है पहचान

हौसलों के बाढ़ से बह जाते अवरोध तरु जड़ से
पहाड़ भी धूल धूसरित हो जाते इनसे टकरा कर

कभी टिप-टिप कभी झर-झर कभी उथली कभी गहरी
कभी पतली कभी मोटी रेखा धरा पर करती अंकित

जब मिट जाये इनकी धारा रेखा, बंद हो जाये चाल
नदी फिर नदी कहां अब, अब केवल पार्थिव देह

-रमेश चौहान

वो प्यार नहीं तो क्या था?

तेरे नैनों का निमंत्रण पाकर
मेरी धड़कन तुम्हारी हुई ।

मेरे नैना तुम्हारी अंखियों से,
पूछा जब एक सवाल
तुम में ये मेरा बिम्ब कैसा ?
पलकों के ओट पर छुपकर
वह बोल उठी- "मैं तुम्हारी दुलारी हुई ।"

नैनों की भाषा जुबा क्या समझे
कहता है ना तुझसे मेरा वास्ता
यह तकरार नहीं तो क्या था ?
नयनों ने फिर नैनों से पूछा
वो प्यार नहीं तो क्या था ??

-रमेश चौहान

आरक्षण सौ प्रतिशत करें

छोड़ बहत्तर सौ करें, आरक्षण है नेक ।
संविधान में है नहीं, मानव-मानव एक  ।।
मानव-मानव एक, कभी होने मत देना ।
बना रहे कुछ भेद, स्वर्ण से बदला लेना ।।
घुट-घुट मरे "रमेश",  होय तब हाल बदत्तर ।
मात्र स्वर्ण को छोड़, करें सौ छोड़ बहत्तर ।।

वेद

श्रीमुख से है जो निसृत,  कहलाता श्रुति वेद ।
मानव-तन में भेद क्या, नहीं जीव में भेद ।।
नहीं जीव में भेद,  सभी उसके उपजाये ।
भिन्न-भिन्न रहवास, भिन्न भोजन सिरजाये ।।
सबका तारणहार, मुक्त करते  हर दुख से ।
उसकी कृति है वेद, निसृत उनके श्रीमुख से ।।
-रमेश चौहान

मैं देश का (गंगोदक सवैया)

शान में मान में गान में प्राण में, जान लो मान लो  मात्र मैं देश का
ध्यान से ज्ञान स योग से भोग से, मूल्य मेरा बने वो सभी देश का ।
प्यार से  बांट के प्यार को प्यार दे, बांध मैं लिया डोर से देश को ।
जाति ना धर्म ना पंथ भी मैं नहीं, दे चुका हूँ इसे दान में देश को ।

-रमेश चौहान

हे सावन सुखधाम

सावन! तन से श्याम थे,
अब मन से क्यों श्याम

धरती शस्या तुम से होती,
नदियां गहरी-गहरी
चिड़िया चीं-चीं कलरव करती,
कुआँ-बावली अहरी ।
(अहरी=प्याऊ)

तुम तो जीवन बिम्ब हो,
तजते क्यों निज काम

धरती तुमसे जननी धन्या,
नीर सुधा जब लाये
भृकुटि चढ़ाये जब-जब तुम तो,
बंध्या यह कहलाये

हम धरती के जीवचर,
करते तुम्हें प्रणाम

तुम से जीवन नैय्या चलती,
तुम बिन खाये हिचकोले
नीर विहिन यह धरती कैसी,
जब रवि बरसाये गोले

कृपा दृष्टि अब कीजिये,
हे! सावन सुखधाम

हिन्दी श्लोक

आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है ।
पंचम लघु  राखो जी, चारो चरण बंद में ।।

छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में ।
निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।।

अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी ।
शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।।
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राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।

मेरा मान लिये जो तो,  देश ही परिवार है ।
अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।

सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से ।
अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।।

सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का ।
हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।

अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे ।
अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।।

अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला ।
अपनी कमजोरी को,  रखते हैं छुपा कर ।।

अपने घर में यारों,  गैरों का कुछ काम क्या ।
आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।।

होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं ।
राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से  मित्र भी  बड़ा ।।

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