‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

आजादी रण शेष है

आजादी रण शेष है, हैं हम अभी गुलाम ।
आंग्ल मुगल के सोच से, करे प्रशासन काम ।।

मुगलों की भाषा लिखे, पटवारी तहसील ।
आंग्लों की भाषा रटे, अफसर सब तफसील ।।

लोकतंत्र में देश का, अपना क्या है काम ।
भाषा अरू ये कायदे, सभी शत्रु के नाम ।।

ना अपनी भाषा लिये, ना ही अपनी सोच ।
आक्रांताओं के जुठन, रखे यथा आलोच ।।

लाओं क्रांति विचार में,  बनकर तुम फौलाद ।
निज चिंतन संस्कार ही, करे हमें आजाद ।

गुरु (दोहे)

पाप रूप कलिकाल में, छद्म वेश में लोग ।
गुरुजी बन कर लोग कुछ, बांट रहे हैं रोग ।।

चरित्र जिसके दीप्त हो, ज्यों तारों में चांद ।
गुरुवर उसको जान कर, बैठे उनके मांद ।।

मन का तम अज्ञान है, ज्योति रूप है ज्ञान ।
तम मिटते गुरु ज्योति से, कहते सकल जहान ।।

भूल भुलैया है जगत, भटके लोग मतंग ।
पथ केवल वह पात है, गुरुवर जिनके संग ।।

जीवन के हर राह पर, आते रहते मोड़ ।
लक्ष्य दिखाकर गुरु तभी, देते उलझन तोड़ ।।

रवि की गति से तेज है, मेरे मन का वेग ।
गुरुवर केवल आप ही, रोक लेत उद्वेग ।।

मैं मिट्टी हूँ चाक का, गुरुवर आप कुम्हार ।
मुझको गढ़िये कुंभ सम, अंतस हाथ सम्हार ।।

मैं नवजात अबोध हूँ, दुनिया से अनभिज्ञ ।
ज्ञान ज्योति गुरु आप हैं, सकल सृष्टि से भिज्ञ ।।

तम तामस से था भरा, खुद को ज्ञानी मान ।
कृपा दृष्टि गुरु आपका, जला दिया अभिमान ।।

अंधकार चहुँ ओर है, जाऊँ मैं किस ओर ।
मुझको राह दिखाइये, गुरुवर बन कर भोर ।

जय भारती जय भारती

जय भारती जय भारती, हम तो उतारें आरती ।
हम लाल तेरे गोद के, तू हमारी माँ भारती ।।
तू वत्सला सबसे बड़ी, वात्सल्य ही तू बाँटती ।
अति सौम्य अति माधुर्य छवि, हर पीर को है छाँटती ।।

केवल ईश्वर एक है

कोटि कोटि है देवता,  कोटि कोटि है संत ।
केवल ईश्वर एक है, जिसका आदि न अंत ।।

पंथ प्रदर्शक गुरु सभी, कोई ईश्वर तुल्य ।
फिर भी ईश्वर भिन्न है, भिन्न भिन्न है मूल्य ।।

आँख मूंद कर बैठ जा, नही दिखेगा दीप ।
अर्थ नही इसका कभी, बूझ गया है दीप ।।

बालक एक अबोध जब,  नही जानता आग ।
क्या वह इससे पालता, द्वेष या अनुराग ।।

मीठे के हर स्वाद में, निराकार है स्वाद ।
मीठाई साकार  है, यही द्वैत का वाद ।।

जिसको तू है मानता, गर्व सहित तू मान ।
पर दूजे के आस को, तनिक तुच्छ ना जान ।।

कितने धार्मिक देश हैं, जिनका अपना धर्म ।
एक देश भारत यहां, जिसे धर्म पर शर्म ।।

प्रकृति और विज्ञान में, पहले आया कौन

प्रकृति और विज्ञान में, पहले आया कौन ।
खोज विज्ञान कर रहा, सत्य प्रकृति है मौन ।।

समय-समय पर रूप को, बदल लेत विज्ञान ।
कणिका तरंग  जान कर,  मिला द्वैत का ज्ञान ।।

सभी खोज का क्रम है, अटल नही है एक ।
पहले रवि था घूमता, अचर पिण्ड़ अब नेक ।।

नौ ग्रह पहले मान कर, कहते हैं अब आठ ।
रंग बदल गिरगिट सदृश, दिखा रहे हैं ठाठ ।।

जीव जन्म लेते यथा, आते नूतन ज्ञान ।
यथा देह नश्वर जगत, नश्वर है विज्ञान ।।

सेवक है विज्ञान तो, इसे न मालिक मान ।
साचा साचा सत्य है, प्रकृति पुरुष भगवान ।।

दो मुक्तक

फूलों की महक घड़ी दो घड़ी ही
ओठों की चहक घड़ी दो घड़ी ही
अक्षय रहता श्वेद, सूख कर भी
श्रम में तू दहक घड़ी दो घड़ी ही


किसी को नाम से वास्ता है
किसी को काम से वास्ता है
यहां मैं मस्त हूँ मस्ती में
मुझे तो जाम से वास्ता है

मूल्य नीति, हमें समझ ना आय

टेक्स हटाओं तेल से, सस्ता कर दो दाम ।
जोड़ो टेक्स शराब पर, चले बराबर काम ।।


अच्छे दिन के स्वप्न को, ढूंढ रहे हैं लोग ।
बढ़े महंगाई कठिन, जैसे कैंसर रोग ।।


कभी व्यपारी आंग्ल के, लूट लिये थे देश ।
आज व्यपारी देश के, बांट रहे हैं क्लेश ।।


तने व्यपारी आन पर, विवश दिखे सरकार ।
कल का हो या आज का, सब दल है लाचार ।।


मूल्य नीति व्यवसाय की, हमें समझ ना आय ।
दस रूपये के माल को, सौं में बेचा जाय ।।


निर्भरता व्यवसाय पर, प्रतिदिन बढ़ती जाय ।
ये उपभोक्ता वाद ही, भौतिकता सिरजाय ।।

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