जग में जीने की कला, जग से लेंवे सीख ।
जीवन जीने की कला, मिले न मांगे भीख ।।
मिले न मांगे भीख, सफलता की वह कुंजी ।
व्यक्ति वही है सफल, स्वेद श्रम जिनकी पूंजी ।।
चलते रहो "रमेश", रक्त बहते ज्यो रग में ।
चलने का यह काम, नाम है जीवन जग में ।।
जीने की कला
वैभवशाली भारत होवे
हे मातृभूमि ममता रूपा, प्रतिपल वंदन तुझको ।
सुखमय लालन-पालन करतीं, गोद बिठाकर मुझको ।
मंगलदात्री पुण्यभूमि माँ, तन-मन अर्पण तुझको ।
तेरे ही हित काज करूँ मैं, इतना बल दे मुझको ।।
हे सर्वशक्तिशाली भगवन, कोटि नमन है तुझको ।
मातृभूमि की सेवा करने, बुद्धि शक्ति दे मुझको ।।
शक्ति दीजिये इतनी भगवन, दुनिया लोहा माने ।
ज्ञान-बुद्धि जन मन में भर दें, दुनिया जिसको जाने ।।
जाति-धर्म से उपजे बाधा, देश प्रेम से टूटे ।
समरसता में गांठे जितने, देश प्रेम से छूटे ।।
भांति-भांति के अंग हमारे, जैसे देह बनावे ।
भांति-भांति के लोग यहां के, काया सा बन जावे ।।
वैभवशाली भारत होवे, अखिल विश्व से बढ़कर ।
देश भक्ति की प्रबल भावना, अब बोले सिर चढ़कर ।।
हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।
हे विधाता नही बदनला मुझे तेरा विधान,
हर दुःख- सुख में मेरा कर दे कल्याण ।
चाहे जितना कष्ट मेरे भाग्य में भर दे,
पर हर संकटों से जुझने का संकल्प दें ।
जो संकट आये जीवन में उनसे मैं दो दो हाथ करू,
संकट हो चाहे जितना विकट उनसे मै कभी न डरू ।
चाहे मेरे हर पथ पर कंटक बिखेर दें,
पर उन कंटकों में चलने का साहस भर दें ।
कष्टो से विचलित हो अपनी मानवता धर्म कभी न भूलू,
हर जीवो के पथ के कंटक अपनी झोली में भर लू ।
चाहे मेरे जीवन को अश्रु धारा से भर दें,
पर अश्रु सागर को पीने मुझे अगस्त-सा कर दें ।
जीवन के किसी खुशी से मैं बौराऊ न,
अपनी खुशी में किसी को सताऊ न ।
चाहे जितनी खुशियां मेरी झोली में भर दे,
पर हर खुशीयों में जीने मुझे जनक-सा कर दें ।।
..............रमेश.........................
सच्चे झूठे कौन
कल का पाण्ड़व आज क्यों, खुद को ही बिसराय ।।
खुद को ही बिसराय, दुष्ट कलयुग में आकर ।
स्वर्ण मुकुट रख शीश, राज सिंहासन पाकर ।
ज्ञाता केवल कृष्ण, ज्ञान जिसको हर पल का ।
सच्चे झूठे कौन, याद किसको है कल का ।।
नूतन संवत्सर उदित
नूतन संवत्सर उदित, उदित हुआ नव वर्ष ।
कण-कण रज-रज में भरे, नूतन-नूतन हर्ष ।।
नूतन नूतन हर्ष, शांति अरु समता लावे ।
विश्व बंधुत्व भाव, जगत भर में फैलावे ।।
नष्ट करें उन्माद, आज मिश्रित जो चिंतन ।
जागृत हो संकल्प, गढ़े जो भारत नूतन ।।
-रमेश चौहान
हे देश के राजनेताओं, थोड़ा तो शरम करो
मुझको भारत माता कहते, मुझपर तो रहम करो ।।
लड़ो परस्पर जी भरकर तुम, पर लोकतंत्र के हद में ।
उड़ो गगन पर उडान ऊँची, पर धरती की जद में ।।
होते मतभेद विचारों में, इंसानों को क्यों मारें ।
इंसा इंसा के साथ रहे,, शैतानों को क्यों तारें ।।
सत्ता का तो विरोध करना, लोकतंत्र का हक है ।
मातृभूमि को गाली देना, कुछ ना तो कुछ शक है ।।
पहले ही बांट चुके हो तुम, मुझे उनके नाम पर ।
फिर टुकड़े करने तत्पर हो, मुझे उनके दाम पर ।।
राजनीति का एक लक्ष्य है, केवल सत्ता पाना ।
किंतु काम कुछ ना आयेगा, तेरा ताना-बाना ।
नहीं रहूँगी साथ तुम्हारे, ऐसे हालातो पर ।
जीवित कैसे रह पाऊँगी, तेरे इन घातों पर ।।
-रमेश चौहान
शिक्षित
जाति धर्म को तोड़ कर, समरसता फैलाव ।।
समरसता फैलाव, लोग देखे थे सपने ।
ऊँच-नीच को छोड़, लोग होंगे सब अपने ।।
खेद खेद अरू खेद, हुआ ना कुछ आपेक्षित ।
कट्टरता का खेल, खेलते दिखते शिक्षित ।।
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