मैंने गढ़ा है (चोका)
मैं प्रकृति हूॅं,
अपने अनुकूल,
मैंने गढ़ा है,
एक वातावरण
एक सिद्धांत
साहचर्य नियम
शाश्वत सत्य
जल,थल, आकाश
सहयोगी हैं
एक एक घटक
एक दूजे के
सहज अनुकूल ।
मैंने गढ़ा है
जग का सृष्टि चक्र
जीव निर्जिव
मृत्यु, जीवन चक्र
धरा निराली
जीवन अनुकूल
घने जंगल
ऊंचे ऊंचे पर्वत
गहरी खाई
अथाह रत्नगर्भा
महासागर
अविरल नदियां
न जाने क्या क्या
सभी घटक
परस्पर पूरक ।
मैंने गढ़ा है
भांति भांति के जंतु
कीट पतंगे
पक्षी रंग बिरंगे
असंख्य पशु
मोटे और पतले
छोटे व बड़े
वृक्षों की हरियाली
सृष्टि निराली
परस्पर निर्भर ।
मैनें गढ़ा है
इन सबसे भिन्न
एक मनुष्य
प्रखर बुद्धि वेत्ता
अपना मित्र
अपना संरक्षक
सृष्टि हितैषी ।
पर यह क्या
मित्र शत्रु हो गये
स्वार्थ में डूब
अनुशासन तोड़
हर घटक
विघटित करते
प्रतिकूल हो
मेरी श्रेष्ठ रचना
मैनें इसे गढ़ा है ।
मैंने गढ़ा है,
एक वातावरण
एक सिद्धांत
साहचर्य नियम
शाश्वत सत्य
जल,थल, आकाश
सहयोगी हैं
एक एक घटक
एक दूजे के
सहज अनुकूल ।
मैंने गढ़ा है
जग का सृष्टि चक्र
जीव निर्जिव
मृत्यु, जीवन चक्र
धरा निराली
जीवन अनुकूल
घने जंगल
ऊंचे ऊंचे पर्वत
गहरी खाई
अथाह रत्नगर्भा
महासागर
अविरल नदियां
न जाने क्या क्या
सभी घटक
परस्पर पूरक ।
मैंने गढ़ा है
भांति भांति के जंतु
कीट पतंगे
पक्षी रंग बिरंगे
असंख्य पशु
मोटे और पतले
छोटे व बड़े
वृक्षों की हरियाली
सृष्टि निराली
परस्पर निर्भर ।
मैनें गढ़ा है
इन सबसे भिन्न
एक मनुष्य
प्रखर बुद्धि वेत्ता
अपना मित्र
अपना संरक्षक
सृष्टि हितैषी ।
पर यह क्या
मित्र शत्रु हो गये
स्वार्थ में डूब
अनुशासन तोड़
हर घटक
विघटित करते
प्रतिकूल हो
मेरी श्रेष्ठ रचना
मैनें इसे गढ़ा है ।
नही है मुश्किल भारी
मुश्किल भारी है नही, देख तराजू तौल ।
आसमान की दूरियां, अब है नही अतौल ।।
अब है नही अतौल, नीर जितने सागर में ।
लिये हौसले हाथ, समेटे हैं गागर में ।।
कहे बात चौहान, हौसला है बनवारी ।
रखें आप विश्वास, नही है मुश्किल भारी ।।
आसमान की दूरियां, अब है नही अतौल ।।
अब है नही अतौल, नीर जितने सागर में ।
लिये हौसले हाथ, समेटे हैं गागर में ।।
कहे बात चौहान, हौसला है बनवारी ।
रखें आप विश्वास, नही है मुश्किल भारी ।।
माॅं को नमन
मेरा मन है पूछता, मुझसे एक सवाल ।
दिवस एक क्यों चाहिये, दिखने माॅं का लाल ।।
दिखने माॅं का लाल, खोजता क्यों है अवसर ।
रग पर माॅं का दूध, भूल जाता क्यों अक्सर ।।
सुनकर मन की बात, हटा जग से अंधेरा ।
करे सुबह अरू शाम, नमन माॅं को मन मेरा ।।
दिवस एक क्यों चाहिये, दिखने माॅं का लाल ।।
दिखने माॅं का लाल, खोजता क्यों है अवसर ।
रग पर माॅं का दूध, भूल जाता क्यों अक्सर ।।
सुनकर मन की बात, हटा जग से अंधेरा ।
करे सुबह अरू शाम, नमन माॅं को मन मेरा ।।
श्रमिक
श्रम को पूजा सब कहे, पूजा करे न कोय ।
श्रम की पूजा होय जो, श्रमिक काहे रोय ।।
श्रमिक काहे रोय, मेहनत दिन भर करके ।
भरे नहीं क्यों पेट, करे जब श्रम जीभर के ।
शोषण अत्याचार, कभी भी मिटे न यह क्रम ।
चिंता सारे छोड़, करे श्रमिक केवल श्रम ।।
श्रम की पूजा होय जो, श्रमिक काहे रोय ।।
श्रमिक काहे रोय, मेहनत दिन भर करके ।
भरे नहीं क्यों पेट, करे जब श्रम जीभर के ।
शोषण अत्याचार, कभी भी मिटे न यह क्रम ।
चिंता सारे छोड़, करे श्रमिक केवल श्रम ।।
जलूं क्यों आखिर घिर कर
घिर कर चारों ओर से, ढूंढ रहा हूॅ राह ।
शीश छुपाने की जगह, पाने की है चाह ।।
पाने की है चाह, कहीं पर एक ठिकाना ।
लगी आग चहुं ओर, मौत को है अब आना ।।
मनुज नही यह देह, कहे वह छाती चिर कर ।
मैं जंगल का पूत, जलूं क्यों आखिर घिर कर ।।
शीश छुपाने की जगह, पाने की है चाह ।।
पाने की है चाह, कहीं पर एक ठिकाना ।
लगी आग चहुं ओर, मौत को है अब आना ।।
मनुज नही यह देह, कहे वह छाती चिर कर ।
मैं जंगल का पूत, जलूं क्यों आखिर घिर कर ।।
-रमेश चौहान
ममता
ममता ममता होत है, नर पशु खग में एक ।
खग के बच्चे कह रहे, मातु हमारी नेक ।
मातु हमारी नेक, रोज दाना है लाती ।
अपने पंख पसार, मधुर लोरी भी गाती ।
वह मुख से मुख जोड़, हमें सिखलाती समता ।
जीवन के हर राह, काम आती है ममता ।।
खग के बच्चे कह रहे, मातु हमारी नेक ।
मातु हमारी नेक, रोज दाना है लाती ।
अपने पंख पसार, मधुर लोरी भी गाती ।
वह मुख से मुख जोड़, हमें सिखलाती समता ।
जीवन के हर राह, काम आती है ममता ।।
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