‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

होली

1.
ये
रंग
बदन
रंगा नही
श्वेत हैं वस्त्र
रंग गया मन
प्रीत के रंग लिये ।

2.मैं
होली
उमंग
शरारत
मेरे दामन हैं
बांटने आई हूॅ
हॅसी, खुशी, एकता ।

होली तो है यार

माने काहे हो बुरा, होली तो है यार ।
आज नही तो कब करूं, मस्ती का इजहार ।।
मस्ती का इजहार, करूं बाहों में भरकर ।
माथे तिलक गुलाल, रंग से काया तर कर ।।
मैं हूॅं तेरा यार, तुझे रब मेरा जाने ।
रंग इसे तो आज, प्रीत का बंधन माने ।।

आई होली आई होली

आई होली आई होली, मस्ती भर कर लाई ।
झूम झूम कर बच्चे सारे, करते हैं अगुवाई ।
देखे बच्चे दीदी भैया, कैसे रंग उड़ाये ।
रंग अबीर लिये हाथों में, मुख पर मलते जाये ।
देख देख कर नाच रहे हैं, बजा बजा कर ताली ।
रंगो इनको जमकर भैया, मुखड़ा रहे न खाली ।
इक दूजे को रंग रहें हैं, दिखा दिखा चतुराई ।
आई होली आई होली.......
गली गली में बच्चे सारे, ऊधम खूब मचाये ।
हाथों में पिचकारी लेकर, किलकारी बरसाये ।।
आज बुरा ना मानों कहकर, होली होली गाते ।
जो भी आते उनके आगे, रंगों से नहलाते ।।
रंग रंग के रंग गगन पर, देखो कैसे छाई ।
आई होली आई होली.......
कान्हा के पिचका से रंगे, दादाजी की धोती ।
दादी भी तो बच ना पाई, रंग मले जब पोती ।
रंग गई दादी की साड़ी, दादाजी जब खेले ।
दादी जी खिलखिला रही अब, सारे छोड़ झमेले ।
दादा दादी नाच रहे हैं, लेकर फिर तरूणाई ।
आई होली आई होली.......

पिता ना कमतर माॅ से

मां से कमतर है कहां, देख पिता का प्यार ।
लालन पालन साथ में, हमसे करे दुलार ।
हमसे करे दुलार, पीर अपने शिश मढ़ते ।
मातु गढ़े है देह, पिता भी मन को गढ़ते ।।
बनकर मेरे ढाल, रखे हैं मुझको जाॅ से ।
पूर्ण करे हर चाह, पिता ना कमतर मां से।।

धूप

घृणित विचारो से घिरे, जैसे मेढक कूप ।
कूप भरे निज सोच से, छाय कोहरा घूप ।।
घूप छटे कैसे वहां, बंद रखें हैं द्वार ।
द्वार पार कैसे करे, देश प्रेम का धूप ।।

देश द्रोह विष गंध है, अंधकार का रूप ।
रूप बिगाड़े देश का, बना रहे मरू-कूप ।।
कूप पड़ा है बंद क्यो, खोल दीजिये द्वार ।
द्वार खड़ा रवि प्रेम का, देने को निज धूप ।।

//माहिया//


रंग मले जब होली
मुझको ना भाये
जब हो ना हमजोली ।
रंग गुलाल न भाये
भाये ना होली
जब साजन तड़पाये ।
-रमेश चौहान

नारी नर अनुहार

बढ़ें पढ़ें सब बेटियां, रखें देश का मान ।
बेटा से कमतर नही, इन पर हमें गुमान ।।

नारी नर का आत्म बल, धरती का श्रृंगार ।
नारी से ही है बना, अपना यह संसार ।।

जग का ऐसा काज क्या, करे न जिसको नार ।
जल थल नभ में रख कदम, दिखा रहीं संसार ।।

प्रश्न उठे ना एक भी, कर लेंती सब काम ।
अवसर की दरकार है, करने को निज नाम ।।

हे नर हॅस कर दीजिये, नारी का अधिकार ।
आधी आबादी देश की, नारी नर अनुहार ।

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