‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

दस दोहे

1.
चूड़ी मुझसे पूछती, जाऊं किसके हाथ ।
छोड़ सुहागन जा रही, अब तो मेरा साथ ।

2.
रखे अपेक्षा पुत्र से, निश्चित इक बाप ।
नेक राह पर पुत्र हो, देवे ना संताप ।।

3.
सच का पथ जग में कठिन, चले कौन उस राह ।
सच्चा झूठा कौन है, करे कौन परवाह ।।

4.
खड़े हुये हैं रेल में, लिये बेटवा बांह ।
झूला जैसे झूलते, बेटा करते वाह ।।

5.
बांटे से कम होत है, हृदय घनेरी पीर ।
ढाढस से रूक जात है, नयनन छलकत नीर ।।

6.
तुलीस कबीर कह गये, दोहों का वह मर्म ।
अपने निज सुख के लिये, करते रहिये कर्म ।।

7.
मानवता बेहोश है, नैतिकता भी सुप्त ।
भारतीय व्यवहार जोे, हो गये कहीं लुप्त ।।

8.
कहें कौन हैं आप से, दुनिया मे हो श्रेष्ठ ।
निज अंतर मन भी कभी, माना तुझे यथेष्ठ ।।

9.
चलते रहिये राह पर, करिये मत विश्राम ।
मंजिल जबतक ना मिले, करते रहिये काम ।।

10.
रंगे कुर्सी बैठ कर, कुर्सी के ही रंग ।
श्वेत हंस कौआ हुआ, देख रहे सब दंग ।।

कान्हा तेरी बासुरी (दोहे)
















कान्हा मुख पर बासुरी, बोल रही सब राग ।
चेतन की क्या बात है, जड़ में है अनुराग ।।

कान्हा तेरी बासुरी, जादू क्यों फैलाय ।
सुध-बुध अब खुद की नही, नही मुझेे कुछ भाय ।।

कदम डाल तो झूमते, यमुना जल बलखाय ।
नाच रही है धूल कण, कान्हा पद परघाय ।।

पुष्प डाल तब नाचती, अपना राग मिलाय ।
घाट-बाट सब तड़प  कर, कान्हा निकट बुलाय ।।

दिखें ना बिखरे-बिखरे (कुण्डलि)

बिखरे-बिखरे पुष्प चुन, बुनिये सुंदर हार ।
तिनका-तिनका बांध कर, गढि़ये इक उपहार ।।
गढि़ये इक उपहार, समेटे जो संदेशा ।
करें इसे स्वीकार, छोड़ कर सब अंदेशा ।
हम दोनों है पुष्प, प्यार धागा जो निखरे ।
रहें सदा हम साथ, दिखें ना बिखरे-बिखरे ।।

भूकंप की मार से

वहां घोर भूकंप की मार से ।।
बहे आदमी अश्रु की धार से ।
घरौंदे जहां तो गये हैं बिखर ।
जहां पर बचे ही न ऊॅंचे शिखर ।।

सड़क पर बिलख रोय मासूम दो।
घरौंदा व माॅ-बाप को खोय जो ।।
दिखे आसरा ना कहीं पर अभी ।
परस्पर समेटे भुजा पर तभी ।।

डरी और सहमी बहुत है बहन ।
हुये स्तब्ध भाई करे दुख सहन ।।
नही धीर को धीरता शेष है ।
नहीं क्लेष को होे रहे क्लेष है ।।

रूठे रब सही पर नही हम छुटे ।
छुटे घर सही पर नही हम टुटे ।।
डरो मत बहन हम न तुमसे रूठे ।
रहेंगे धरा पर बिना हम झुके ।।

चार मुक्तक

1.बड़े बड़े महल अटारी और मोटर गाड़ी उसके पास
यहां वहां दुकान दारी  और खेती बाड़ी उसके पास ।
बिछा सके कही बिछौना इतना पैसा गिनते अपने हाथ,
नही कही सुकुन हथेली, चिंता कुल्हाड़ी उसके पास ।।

2.तुझे जाना कहां है जानता भी है ।
चरण रख तू डगर को मापता भी है ।।
वहां बैठे हुये क्यों बुन रहे सपने,
निकल कर ख्वाब से तू जागता भी है ।

3.कोई सुने ना सुने राग अपना सुनाना है ।
रह कर अकेले भी अपना ये महफिल सजाना है ।
परवाह क्यों कर किसी का करें इस जमाने में
औकात अपनी भी तो इस जहां को दिखाना है ।।

4.खून पसीना सा जो बहाते, वीर ऐसा नही देखा ।
पेट भरे जो तो दूसरो का, धीर ऐसा नही देखा ।
अन्न उगाते जो चीर कर धरती, कृषक कहाते हैं ।
विष भी पचाते है जो धरा में, हीर ऐसा नही देखा ।  हीर-शंकर जी

अपेक्षा (शक्ति छंद)

अपेक्षा नही है किसी से मुझे ।
खुदा भी नही मुफ्त देते तुझे ।।
भजन जो करेगा सुनेगा खुदा ।
चखे कर्म फल हो न हो नाखुदा ।।

पड़े लोभ में लोेग सारे यहां ।
मदद खुद किसी की करे ना जहां ।।
अपेक्षा रखे दूसरों से वही ।
भरोसा उसे क्या कुुवत पर नही ।।

मदद जोे करे दूसरो का कहीं ।
अभी भी बची आदमीयत वहीं ।
कभी सांच को आंच आवे नही ।
कुहासा सुरूज को ढकें हैं कहीं ।।

सच को आय न आंच (कुण्ड‍लियां)

दुनिया के बाजार में, झूठ लगे अनमोल ।
चमक दमक को देख कर, जन जन लेते मोल ।।
जन जन लेते मोल, परख ना जाने सोना ।
पारखी करे मोल, सत्य है सच का होना ।।
कह ‘रमेश्‍ा‘ कविराय, सत्य है इक निरगुनिया ।
सच को आय न आंच, तपा कर परखे दुनिया ।।

साॅचा साॅचा होय है, नही साॅच को आॅच।
आंख खोल कर देख लो, जगत बचें हैं साॅच ।।
जगत बचें हैं साॅच, पार कर हर बाधा को ।
नही स्वार्थ अरू लोभ, कृष्‍ण की उस राधा को।।
कह ‘रमेश्‍ा‘ कविराय, झूठ तो होय नराचा ।
लगे भले दिन चार, अंत जीते हैं साॅंचा ।।

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