अटल बिहारी वाजपेई
शिक्षा: एक अच्छा नौकर है, मालिक नहीं
हमने विज्ञान का निबंध
रटा था,
विज्ञान एक अच्छा नौकर है,
मालिक नहीं
आज एक समाचार पढ़ा
एक मेजर के तीन लड़के थे
खूब-पढ़ाया लिखाया
ऐशों आराम दौलत थमाया
समय चक्र चलता गया,
मेजर की पत्नी चल बसी
बेटे पत्नियों से युक्त
मेजर बूढ़ा हो चला
हाथ-पैर असक्त
जुबान बंद
वह बिस्तर का
कैदी रह गया
धन का कमी था नहीं
बेटे बाप को
नौकर भरोसे छोड़
विदेश चले गए
मेजर के बेटे होने का
रौब दिखाते हुए
नौकर भला इंसान
सेवा करता नित
बिस्तर के कैदी का
एक दिन नौकर
गया बाजार
खरीदने मेजर के लिए
जरुरी सामान
पर नियति ने
उसे ठोकर मारी
दुर्घटना में वह
दुनिया को कह गया
अलविदा
मेजर बिस्तर का कैदी
बंद कमरे में
बंद हो गया
बंद हो गई
उसकी जीवन लीला
महीनों बाद
बेटे लौटे
विदेश के सैर से
कंकाल पड़ा मिला
बाप का नहीं
मेजर का
मेजर के बेटों को
न जाने
ऐसे कितने
माँ-बाप
मरते रहे हैं
मरते रहेंगे
संतानों को
पढ़ा-लिखा कर,
साहब बना कर
अपने सुख चैन
अपनी जिंदगी
गंवाकर
यह शिक्षा
कान्वेंट का
साहब बनाने,
बच्चों को
धनवान बनाने
भौतिकता के पीछे
नैतिकता खोकर
भाग जाने का
एक अच्छा मालिक
हो नहीं सकता
विज्ञान की तरह
मुखौटा
उनके चेहरे पर
महीन मुख श्रृंगारक लेप सा,
भावों और विचारों का
है अदृश्य मुखौटा
मानवतावादी और सेक्युलर
कहलाने वाले चेहरों को
मैं जब गौर से देखा,
उनके चेहरे पर
पानी उलेड़ा
तो मैंने पाया
न मानवतावादी मानवतावादी है
न ही सेक्युलर, सेक्युलर
अपने विचारों के
स्वजाति बंधुओं को ही
वे समझते हैं मानव
सेक्युलर भी
विचार और आस्था से भिन्न
प्राणियों को मानव
कहां समझते हैं ?
अपने विचारों को
जहां,जिस पर पल्लवित पाया
वहां की घटनाएं
बलत्कार, अत्चार पर
शोर करते
चिखते चिल्लाते हैं,
बाकी पर
गूंगे, बहरे और अंधे का
किरदार निभाते हैं
एक सफल
अभिनेता की भांति
लकड़ी के खंभे
पत्थर के चबूतरे पर
वस्त्रों की बर्बादी
देख न पाने वाले
मूर्ति और दूध पर
सवाल उठाते हैं
जन्म से बनी जाति को
समूल नष्ट करने जो
मुखर दिखते हैं
अपनी ही जाति को
जीवित रखने
अनेक संगठन
खड़े कर रखे हैं
चौपाल लगाकर
सरकार को डरा कर
मांग रहे हैं
केवल और केवल
अपने लिए
सुविधाएं
आरक्षण की बैसाखी
सेक्युलर को
देखना क्यों पड़ता है ?
पूछना क्यों पड़ता है ?
मानना क्यों पड़ता है ?
किसी का धर्म और पंथ
सेक्युलर देश में
सरकारी पर्चो पर
क्यों जीवित है ?
धर्म और जाति का
वह कॉलम
केवल राजनेताओं के नहीं,
न ही अभिनेताओं के
बुद्धिजीवियों के
चेहरों पर भी
मुझे दिखते हैं मुखौटे ।
चिंता या चिंतन
आ लौट चलें
आ लौट चलें,
ओम
आग लगी पेट्रोल पर (दोहागीत)
आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।
राज्य, केन्द्र सरकार को, तनिक नहीं है क्लेश ।।
मँहगाई छूये गगन, जमीदोज है आय ।
जनता अपनी पीर को, कैसे किसे बताय ।।
राज व्यपारी का दिखे, नेता भी अलकेश ।
आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।
(अलकेश-कुबेर)
राज्य कहे है केन्द से, और केन्द्र तो राज्य ।
कंदुक के इस खेल का, केवल दिखे सम्राज्य ।।
इसका करें निदान अब, तज नाहक उपदेश ।
आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।।
तिल-तिल है दिल जल रहा, जले रसोई गैस ।
खाद्य तेल सब्जी सभी, दिखा रहे हैं टैस ।।
मँहगाई के उत्पात से, जनता है निर्वेश ।
आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।।
अटल अटल ना रह सका, उछले थे जब प्याज ।
मँहगाई के मूल्य का, बचा रहेगा ब्याज ।।
कर लो सोच विचार अब, हो जो आप प्रजेश ।
आग लगी पेट्रोल पर, धधक रहा है देश ।।
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