‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

क्या कहू तुझको



 क्या कहू वासुदेव का लाला तुझको, या कहू देवकी का लाला तुझको,
ब्रज का दुलारा तु तो नंद का छोरा याशेदा का लाला है ।

क्या कहू गोपाला तुझको,या कहू ग्वाला तुझको,
मोर पंख वाला तु तो गऊवें चराने वाला है ।

क्या कहूं माखनचोर तुझको, या कहूं चितचोर तुझको,
मुख बासुरी वाला तु तो ऊंगली गोवर्धन उठाने वाला है ।

क्या कहूं मनसुखा का साथी तुझको, या कहू तनसुख का साथी तुझको,
राधा का श्याम तु तो सभी गोप-ग्वालिनों को नचाने वाला है ।

क्या कहूं पुतना मरईया तुझको, या कहूं नाग नथईया तुझको,
अका-बकासुर हंता तु तो कंस को मारने वाला है ।

क्या कहूं राधा का श्याम तुझको, या कहूं मीरा का श्याम तुझको,
कण कण में रमणे वाला तु तो हर भक्तो के दुख को हरने वाला है ।
 ..................‘‘रमेश‘‘............................

हे दयामयी मां शारदे

हे दयामयी मां शारदे, मेरा जीवन संवार दें ।
तू तो ज्ञान की देवी मां, मुझे केवल ज्ञान का उपहार दें ।।

 वर्ण-वर्ण, छन्द-छन्द, सुर-संगीत सभी हैं तेरे कण्ठ ।
 कर सोहे वीणा तेरे मां, मेरे जीवन भी में वीणा झंकार दें।।

 सप्त सुर सप्त वर्ण से, श्वेत वर्ण तुझे सुहाती मां।
हे श्वेतमयी मां शारदे, मेरा जीवन संवार दें ।

 श्वेत वस्त्र से शोभित, श्वेत हंस में विराजीती मां ।
हस्तगत है तेरे वेद पुराण मां, मेरे जवीन में वेदमति भर दें ।।

मैं कलम का साधक मां, मेरी साधना अब पूरी कर दें ।
मेरे हर पद हर छन्द में मां, जीवन के नवरस भर दें ।।

मेरे चिंतन मनन विचार शून्यता में, नव विचार का संचार करे दें ।
 शरण आया हूं तेरी मां, मुझ दीन हीन की झोली अब भर दें ।।

नहीं मांगता मां मैं मुक्ता माणीक, मेरे हाथों में अब सुर दें ।
मानव मानव के इस जीवन में, मानवता का रंग अब भर दें ।।
 ..................‘‘रमेश‘‘...............................

वाणी

जिहवा रसना ही नही वाणी भी होय ।
छप्पपन भोग नाना रस चटकारे हरकोय ।।
वाणी के पांच श्रृंगार होत है समझे सब कोय ।
सत्य,मृदु, सार , हितैषी और मितव्ययी होय ।।
सदा सत्य बोले जो कर्णप्रिय होय ।
बोल हो कम सही पर  सारगर्भित होय ।।
हित अहित विचारिये फिर अपना मुख खोल ।
वाणी से ही मित्र शत्रु और शत्रु मित्र होय ।।

................‘‘रमेश‘‘..........................

इससे तो मै बांझ भली थी

कितनी मिन्नते और अरमा से मैंने उसको पाया था ,
कितने लाड एवं प्यार से उसे मैंने गोद में खिलाया था ।

पर मुझे ये क्या पता रे जाल्मि तू तों मां के कोख पर कंलक लगायेगा ,
होके जवा तू हवसी  बन मासूम के इज्जत से ही खेल जायेगा ।

तूने मासूम की इज्जत का नही मां की ममता को तार तार किया है ,
मुझे बेटे की जो थी चाहत उस चाहत का हलाल किया है ।

अगर मुझे पता होता मेरा बेटा नही जल्लाद होगा
जिनके कर्मो से सारा  देश रोयेगा।

तो मै तेरा कोख में हत्या कर देती,
ऐसे औलाद  से मैं बांझ भली कह देती ।

................‘‘रमेश‘‘................................

बढ़ने दो इन बढ़े हुये कदमों को

बढ़ने दो इन बढ़े हुये कदमों को, इसे क्यों रोकते हो ।
मंजिल है अभी दूर, कठिनाईयों से क्यों डरते हो ।।

ठान लिये हो जब अपना वजूद बनाना तो क्यो रूकते हो ।
चढ़नी है अभी चढ़ाई तो ऊंचाई देख क्यों डरते हो ।।

रात का अंधेरा सदा छाया रहता है ऐसा तुम क्यो सोचते हो ।
अंधेरे को चिरता दिनकर है आया फिर तुम क्यों रूकते हो ।।

चिंटी कितने बार गिरता फिर सम्हलता है तो तुम क्यों रूके हो।
पक्षी भी तिनके तिनके से घोसला बुने है तो तुम क्यों नही बुनते हो ।।

कौआ भी गागर में कंकड़ डाल पानी पी लिया तो तुम क्यों नही पिते हो ।
छोड़ दुनिया की आस अपने ही दम पर अपना जीवन क्यों नही जिते हो ।।

...............................‘‘रमेश‘‘..........................

हे मानव

हे मानव तुम मानवता को क्यों रहे हो भूल ।
मनव होकर दानव होने पर दे रहे हो तूल ।

धर्मरत कर्म पथ पर आगे बढ़ने का जो था मान ।
शांति और पथ प्रदर्षक का जो था सम्मान ।।
आज हमारे मान सम्मान फांसी में रहे हैं झूल ।
हे मानव तुम मानवता को क्यों रहे हो भूल ।।

जियो और जिने दो का नारा करके बुलंद ।
अपनी ही मस्ती में मस्त क्यो हो मतिमंद ।।
अपनी खुशी के लिये दूसरों को क्यों देते हो शूल ।
हे मानव तुम मानवता को क्यों रहे हो भूल ।

हर बाला देवी की प्रतिमा जहां बच्च बच्चा राम है ।
हर प्रेमिका राधा राधा हर प्रेमी जहां श्याम है ।।
वात्सलाय के इस धाम में वासना कैसे गया घुल ।
हे मानव तुम मानवता को क्यों रहे हो भूल ।

हिन्दु मुसलिम सिक्ख ईसाई से पहले मानव हो कहलाये ।
फिर क्यों मानव होकर मानव को मजहब के नाम पर बांट खायें ।।
मानव का परिचय मानव न होकर होगया जाति धरम और कुल ।
हे मानव तुम मानवता को क्यों रहे हो भूल ।
.................‘‘रमेश‘‘......................

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