‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

काया कैसे देश की, माने अपनी खैर

जाति जाति के अंग से, एक कहाये देह ।
काम करे सब साथ में, देह जगाये नेह ।

हाथ पैर का शत्रु हो, पीठ पेट में बैर ।
काया कैसे देश की, माने अपनी खैर ।।

पंड़ित वह काश्मीर का, पूछ रहा है प्रश्न ।
टूटे मेरे घोसले, उनके घर क्यों जश्न ।।

हिन्दू हिन्दी देश में, लगते हैं असहाय ।
दूर देश की धूल को, जब जन माथ लगाय ।।

‘कैराना‘ इस देश का, बता रहा पहचान ।
हिन्दू का इस हिन्द में, कितना है सम्मान ।।

दफ्तर दफ्तर देख लो, या शिक्षण संस्थान ।
हिन्दी कहते हैं किसे, कितनों को पहचान ।।

-रमेश चौहान

जागो हिन्दू अब तो जागो

कौन सुने हिन्दू की बातें, गैर हुये कुछ अपने ।
कुछ गहरी निद्रा में सोये, देख रहें हैं सपने ।।

गढ़ सेक्यूलर की दीवारे, अपने हुये पराये ।
हिन्दूओं की बातें छोड़ो, हिन्दू जिसे न भाये ।।

धर्म निरपेक्ष का चोला धर, बनते उदारवादी ।
राजनीति में माहिर वो तो, केवल अवसरवादी ।।

उनको माने सोने चांदी, हमको सिक्के खोटे ।
उनके जुकाम भारी लगते, घाव हमारे छोटे ।।

अंधे बहरे हो जाते क्यों, वो मानवतावादी ।
अत्याचार दिखे ना उनको, जब हिन्दू फरयादी ।

ऐसे लोगो की कमी नही, जो अपने में खोये ।
दूजे की जो चिंता छोड़े, पैर पसारे सोये ।।

नहीं हमारा बैरी दूजा, शत्रु यही हैं सारे ।
आजादी से लेकर अबतक, जो हमको हैं मारे ।

कौन निकाले हैं पंडित को, जो घाटी में खेले ।
उनके आंखों के आंसू भी, जिनको लगे झमेले ।।
 
मेरी धरती मेरा अंबर, फिर भी मैं बेगाना ।
जहां अल्प संख्यक है हिन्दू, वहां बने ‘कैराना’ ।।

परहेज हमें क्यों कर होगा, बरकत होवे सबका ।
हिन्दू इस धरती के जाये, क्यों फिर कुचला तबका । 

जागो हिन्दू अब तो जागो, गहरी निद्रा छोड़ो ।
अस्तित्व बचाने तुम अपना, बैरी का मुख तोड़ो ।।

मैंने गढ़ा है (चोका)

मैं प्रकृति हूॅं,
अपने अनुकूल,
मैंने गढ़ा है,
एक वातावरण
एक सिद्धांत
साहचर्य नियम 
शाश्वत सत्य
जल,थल, आकाश
सहयोगी हैं
एक एक घटक
एक दूजे के
सहज अनुकूल ।
मैंने गढ़ा है
जग का सृष्टि चक्र
जीव निर्जिव
मृत्यु, जीवन चक्र
धरा निराली
जीवन अनुकूल
घने जंगल
ऊंचे ऊंचे पर्वत
गहरी खाई
अथाह रत्नगर्भा
महासागर
अविरल नदियां
न जाने क्या क्या
सभी घटक
परस्पर पूरक ।
मैंने गढ़ा है
भांति भांति के जंतु
कीट पतंगे
पक्षी रंग बिरंगे
असंख्य पशु 
मोटे और पतले
छोटे व बड़े
वृक्षों की हरियाली
सृष्टि निराली
परस्पर निर्भर ।
मैनें गढ़ा है
इन सबसे भिन्न
एक मनुष्य
प्रखर बुद्धि वेत्ता
अपना मित्र
अपना संरक्षक
सृष्टि हितैषी ।
पर यह क्या
मित्र शत्रु हो गये
स्वार्थ में डूब
अनुशासन तोड़
हर घटक
विघटित करते
प्रतिकूल हो 
मेरी श्रेष्ठ रचना 
मैनें इसे गढ़ा है ।

नही है मुश्किल भारी

मुश्किल भारी है नही, देख तराजू तौल ।
आसमान की दूरियां, अब है नही अतौल ।।
अब है नही अतौल, नीर जितने सागर में ।
लिये हौसले हाथ, समेटे हैं गागर में ।।
कहे बात चौहान, हौसला है बनवारी ।
रखें आप विश्वास, नही है मुश्किल भारी ।।

माॅं को नमन

मेरा मन है पूछता, मुझसे एक सवाल ।
दिवस एक क्यों चाहिये, दिखने माॅं का लाल ।।
दिखने माॅं का लाल, खोजता क्यों है अवसर ।
रग पर माॅं का दूध, भूल जाता क्यों अक्सर ।।
सुनकर मन की बात, हटा जग से अंधेरा ।
करे सुबह अरू शाम, नमन माॅं को मन मेरा ।।

श्रमिक

श्रम को पूजा सब कहे, पूजा करे न कोय ।
श्रम की पूजा होय जो, श्रमिक काहे रोय ।।
श्रमिक काहे रोय, मेहनत दिन भर करके ।
भरे नहीं क्यों पेट, करे जब श्रम जीभर के ।
शोषण अत्याचार, कभी भी मिटे न यह क्रम ।
चिंता सारे छोड़, करे श्रमिक केवल श्रम ।।

जलूं क्यों आखिर घिर कर

घिर कर चारों ओर से, ढूंढ रहा हूॅ राह ।
शीश छुपाने की जगह, पाने की है चाह ।।
पाने की है चाह, कहीं पर एक ठिकाना ।
लगी आग चहुं ओर, मौत को है अब आना ।।
मनुज नही यह देह, कहे वह छाती चिर कर ।
मैं जंगल का पूत, जलूं क्यों आखिर घिर कर ।।

-रमेश चौहान

Blog Archive

Popular Posts

Categories