मानव मानव एक हैं, कहे धर्म हरएक।
भिन्न-भिन्न पथ है सही, पर मंजिल है एक ।
कर्म कर्म सतकर्म कर, कर्म रचे व्यवहार ।
पैसों से व्यवहार तो, मिले नही संसार ।।
बढ़े चलो निज राह पर, हिम्मत भरकर बाॅंह ।
तेज धूप को देख कर, ढूंढ़ों मत जी छाॅह ।।
यहां वहां देखें जहां, इक जैसे है लोग ।
स्वार्थ लोभ अरू मोह का, लगा सभी को रोग ।
आप और मैं एक है, ना चाकर ना कंत ।
बहरा बनकर तू सुने, आॅंख मूंद मैं संत ।।
भिन्न-भिन्न पथ है सही, पर मंजिल है एक ।
कर्म कर्म सतकर्म कर, कर्म रचे व्यवहार ।
पैसों से व्यवहार तो, मिले नही संसार ।।
बढ़े चलो निज राह पर, हिम्मत भरकर बाॅंह ।
तेज धूप को देख कर, ढूंढ़ों मत जी छाॅह ।।
यहां वहां देखें जहां, इक जैसे है लोग ।
स्वार्थ लोभ अरू मोह का, लगा सभी को रोग ।
आप और मैं एक है, ना चाकर ना कंत ।
बहरा बनकर तू सुने, आॅंख मूंद मैं संत ।।