‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

जरा समझना भला

ये शब्द कहते क्या है जरा समझना भला
शब्दों से पिरोई माला कैसे लगते हैं भला


दुख की सुख की तमाम लम्हे हैं पिरोये,
विरह की वेदना प्रेम की अंगड़ाई भला

कवि मन केवल सोचे है या समझे भी
उनकी पंक्तिया को पढ़ कर देखो तो भला

जिया जिसे खुद या और किसी ने यहां
अपने कलम से फिर जिंदा तो किया भला

आइने समाज का बना उतारा कागज पर
कितनी सुंदर चित्र उकेरे है देखो तो भला

अगर किसी रंग की कमी हो इन चित्रों पर
उन रंगों को सुझा उन्हे मदद करो तो भला


..........‘‘रमेश‘‘.........................

जिस तरह

मेरे मन मे वह बसी है किस तरह ,
फूलों में सुगंध समाई हो जिस तरह ।

अपने से अलग उसे करूं किस तरह,
समाई है समुद्र में नदी जिस तरह ।

उसके बिना अपना अस्तित्व है किस तरह,
नीर बीन मीन रहता है जिस तरह ।

उसकी मन ओ जाने मेरी है किस तरह,
देह का रोम रोम कहे राम जिस तरह ।

अलग करना भी चाहू किस तरह,
वह तो है प्राण तन में जिस तरह ।

..........रमेश‘......

क्यों रूकते हो



बढ़ने दो इन बढ़े हुये कदमों को, इसे क्यों रोकते हो ।
मंजिल है अभी दूर, कठिनाईयों से क्यों डरते हो ।।

ठान लिये हो जब अपना वजूद बनाना तो क्यो रूकते हो ।
चढ़नी है अभी चढ़ाई तो ऊंचाई देख क्यों डरते हो ।।

रात का अंधेरा सदा छाया रहता है ऐसा तुम क्यो सोचते हो ।
अंधेरे को चिरता दिनकर है आया फिर तुम क्यों रूकते हो ।।

चिंटी कितने बार गिरता फिर सम्हलता है तो तुम क्यों रूके हो।
पक्षी भी तिनके तिनके से घोसला बुने है तो तुम क्यों नही बुनते हो ।।

कौआ भी गागर में कंकड़ डाल पानी पी लिया तो तुम क्यों नही पिते हो ।
छोड़ दुनिया की आस अपने ही दम पर अपना जीवन क्यों नही जिते हो ।।

............‘‘रमेश‘‘.......................

देखी है हमने दुनिया

देखी है हमने दुनिया,
फूक से पहाड उडाने वाले,
कागज की किस्ती भी नही चला पाते है ।

देखी है हमने दुनिया,
आसमान से चांद सितारे तोड लाने वाले,
जीवन भर साथ निभा भी नही पाते ।

देखी है हमने दुनिया,
नैनो की भाषा समझने वाले,
चीख पुकार भी सुन नही पाते ।

देखी है हमने दुनिया,
इश्क को जिस्म की अरमा समझने वाले,
इस जहां में किसी से इश्क निभा  नही पाते ।।

मन का साथी

  
धड़कन में,
धड़कती है तू ही,
श्वास प्रश्वास बन ।


जीवन मेरा,
सांसो से ही हीन है,
जीना कैसे हो ।

मेरी पूजा तू,
प्रेम अराधन तू,
रब जैसे हो ।


मेरा जीवन,
नीर बिना मछली,
जीना जैसे हो ।

चंद्रमा बीन,
पूर्णमासी का रात,
भला कैसे हो ।

तुझ बिन मै,
लव बीन दीपक,
साथ जैसे हो ।

मन का साथी,
चिड़या सा चहको,
खुला आंगन ।
-रमेशकुमार सिंह चैहान

मधुर मधुर याद

मधुर मधुर याद है आती, मन को नये पंख लगाती ।
संस्मरण आकाश में उड़ती, मन कलरव गानसुनाती ।।

बालगीत गाकर मुझको मां के गोद में सुलाती ।
लोरी गा थपकी दे कर नींदिया को है बुलाती ।

मित्रों की आवाज दे बचपना याद दिला रहे  ।
कंचे, गिल्ली-डंडा,  सब कुछ याद आ रहे ।

स्कूल का बस्ता, गुरूजी का बेद कहां भुलाये ।
 गुरूजी का ज्ञान जीवन में आज काम आये  ।

स्कूल का सुंदर चित्र उमड़ घुमड़ रहा है ।
साथीयों का  मस्ती यादें उधेंड़ रहा है ।

खिला था जब जीवन में प्यार का मधु अंकुर ।
ओ हंसना, ओ मुस्कुराना और बातों में मस्गुल ।

किसी से आंखे चार हुआ था, हमें किसी से प्यार हुआ था ।
जिसको हमने और जिसने हमको अपने में जिया था ।

साथ में जीने मरने की बातें तो कहीं पर ओ हौसला कहां लिया था ।
घर परिवार और समाज के नाम अपना प्यार बलिदान किया था ।

नदी के दो किनारे बीच जीवन चंचल धारा सी बह रही है ।
ये मधुर यादें तो हैं जो संस्मरण के चिथडे को सी रही है ।

दिन रात के इस जीवन में एक नई रोषनी का आगमन हुआ ।
जीवन सहचरंणी का मेरे जीवन में प्रार्दापन हुआ  ।

ष्वेत जीवन तब तो रंगीन हुये, अब तो जीवन उसे के आधीन हुये ।
फुलवारी में सुंदर दो फूल खिले, जीवन की आस उसी से जा मिले ।

मन पक्षी उड़ते आकाष आ पहुॅचे पुनः मेरे पास ।
अब तो मै बैठा हूॅ दुनियादारी के चिंता में उदास ।।
................‘‘रमेश‘.................

जरूरी तो नही

देखते सुनते है जो हम अपने चारों ओर,                                   
विचारों में घुल मिल जाये जरूरी तो नही ।

विचारों में जो विचार घुल मिल जाये,
परिलक्षित हो कर्मो में जरूरी तो नही ।

हर परिलक्षित कर्म  कुलसित हो जाये,
कुलसित नजर आये जरूरी तो नही ।

जो अपने विचारों मे ही दृढ  हो जाये,
ऐसा हर व्यक्ति हो जरूरी तो नही ।


...‘‘रमेश‘‘...

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