‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

देशप्रेम सबसे प्रथम

देशप्रेम सबसे प्रथम, बाकी मुद्दे बाद में ।
बलिदानी इस देश के, बोल रहे हैं याद में ।।
प्राण दिये हैं हम यहाँ, एक आश विश्वास में ।
अखिल हिन्द सब एक हो, देशभक्ति की प्यास में ।।
वह बलिदानी आपसे, माँग रहा बलिदान है ।
सुख का लालच छोड़ कर, करना अब मतदान है ।।
-रमेश चौहान

अभिनंदन नूतन वर्ष

अभिनंदन नववर्ष
(दुर्मिल सवैया )

अभिनंदन  पावन वर्ष नया
दुख नाशक हो सुख ही करिये ।
नव भाग्य रचो शुभ कर्म कसो
सब दीनन के घर श्री धरिये ।
परिवार सभी परिवार  बने
मन द्वेष पले उनको हरिये ।
जग श्री शुभ मंगलदायक हो
सुख शांति चराचर में  भरिये ।।

-रमेश चौहान

चुनावी दोहा

देश होत है लोग से, होत देश से लोग ।
देश भक्ति निर्लिप्त है, नहीँ चुनावी भोग ।।

गर्व जिसे ना देश पर, करते खड़ा सवाल ।
जिसके बल पर देश में , दिखते नित्य बवाल ।।

वक्त यही बदलाव का, बनना चौकीदार ।
नंगे-लुच्चे इस समय, पहुँचे मत दरबार ।।

लोकतंत्र में मतदाता ही, असली चौकीदार ।
स्वार्थी लोभी नेताओं को, करे बेरोजगार ।।

देख घोषणा पत्र यह, रिश्वत से ना भिन्न ।
मुफ्तखोर सब लोग हैं, जो इससे ना खिन्न ।।

मुफ्त बांटना क्यों भला, हमें दीजिये काम ।
मैं भी तो जीवित रहूँ, रहे आत्म सम्मान ।।

लोभ मोह को छोड़कर, करना है मतदान ।
देश शक्तिशाली बने, बढ़े आत्म सम्मान ।।


चुनावी सजल

सुई रेत में गुम हो गई , सत्य चुनावी घोष में,
कौन कहां अब ढूँढे उसे, बुने हुये गुण-दोष में ।

भाग्य विधाता बनने चले, बैठ ऊँट की पीठ पर,
चना-चबेना खग-मृग हेतु, छिड़क रहें उद्घोष में ।

जाल बिछाये छलबल लिये, दाने डाले बोल के
देख प्रतिद्वंदी वह सजग, लाल दिखे है रोष में ।

बने आदमी यदि आदमी, अपने को पहचान कर
रत्न ढूँढ लेवे सिंधु से, मिथक तोड़ संतोष में ।

लोभ मोह के झाँसा फँसे, अपने को ही भूल कर 
पत्थर पाकर प्रसन्न रहे, अवसर के इस कोष में ।।

-रमेश चौहान

बढ़ो तुम देखा-देखी

देखा-देखी से जगत, आगे बढ़ते लोग ।
अगल-बगल को देखकर, बढ़े जलन का रोग ।
बढ़े जलन का रोग, करे मन ऐसा करना ।
करके वैसा काम, सफलता का पथ गढ़ना ।
सुन लो कहे रमेश, छोड़ कर अपनी  सेखी ।
करलो खुद  कुछ काम, बढ़ो तुम देखा-देखी ।।

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