‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

सभ्यसमाज

सभ्यसमाज
एक कुशल माली
बेटी की पौध
रोपते जतन से
पल्लवित होकर
नन्ही सी पौध
अटखेलियां करे
गुनगुनाती हुई
पुष्पित होती
महके चारो ओर
करे जतन
तोड़े ना कोई चोर
जग बगिया
बेटी जिसकी शोभा
गढ़े गौरव गाथा ।

ममता का आंचल

तारें आकश
दीनकर प्रकाश
धरती रज
समुद्र जल निधि
ईश्वर दया
माप सका है कौन
जगत मौन
ममता का आंचल
गोद में शिशु
रक्त दान करती
वात्सल्य स्नेह वह

नेताओं के चम्मच


.कौन करे है ?
देश में भ्रष्टाचार,
हमारे नेता,
नेताओं के चम्मच
आम जनता
शासक अधिकारी
सभी कहते
हाय तौबा धिक्कार
थूक रहे हैं
एक दूसरे पर
ये जानते ना कोई
नही नही रे
मानते नही कोई
तुम ही तो हो
मै भी उनके साथ
बेकार की है बात ।


प्राण सम सजनी

.चारू चरण
चारण बनकर
श्रृंगार रस
छेड़ती पद चाप
नुुपूर बोल
वह लाजवंती है
संदेश देती
पैर की लाली
पथ चिन्ह गढ़ती
उन्मुक्त ध्वनि
कमरबंध बोले
लचके होले
होले सुघ्घड़ चाल
रति लजावे
चुड़ी कंगन हाथ,
हथेली लाली
मेहंदी मुखरित
स्वर्ण माणिक
ग्रीवा करे चुम्बन
धड़की छाती
झुमती बाला कान
उभरी लट
मांगमोती ललाट
भौहे मध्य टिकली
झपकती पलके
नथुली नाक
हंसी उभरे गाल
ओष्ठ गुलाबी
चंचल चितवन
गोरा बदन
श्वेत निर्मल मन
मेरे अंतस
छेड़ती है रागनी
प्राण सम सजनी ।।

जीवन समर्पण

रोपा है पौध
रक्त सिंचित कर
निर्लिप्त भाव
जीवन की उर्वरा
अर्पण कर
लाल ओ मेरे लाल
जीवन पथ
सुघ्घड़ संवारते
चुनते कांटे
हाथ आ गई झुर्री
लाठी बन तू
हाथ कांप रहा है
अंतःकरण,
प्रस्पंदित आकांक्षा,
अमूर्त पड़ा
मूर्त करना अब,
सारे सपने,
अनगढ़े लालसा
प्रतिबम्ब है
तू तन मन मेरा
जीवन समर्पण ।

कौन श्रेष्ठ है ?

.कौन है सुखी ?
इस जगत बीच
कौन श्रेष्ठ है ?
करे विचार
किसे पल्वित करे
सापेक्षवाद
परिणाम साधक
वह सुखी हैं
संतोष के सापेक्ष
वह दुखी है
आकांक्षा के सापेक्ष
अभाव पर
उसका महत्व है
भूखा इंसान
भोजन ढूंढता है
पेट भरा है
वह स्वाद ढूंढता
कैद में पक्षी
मन से उड़ता है
कैसा आश्चर्य
ऐसे है मानव भी
स्वतंत्र तन
मन परतंत्र है
कहते सभी
बंधनों से स्वतंत्र
हम आजाद है रे ।

मानवता कहां है ?

2.घने जंगल
वह भटक गया
साथी न कोई
आगे बढ़ता रहा
ढ़ूंढ़ते पथ
छटपटाता रहा
सूझा न राह
वह लगाया टेर
देव हे देव
सहाय करो मेरी
दिव्य प्रकाष
प्रकाशित जंगल
प्रकटा देव
किया वह वंदन
मानव है तू ?
देव करे सवाल
उत्तर तो दो
मानवता कहां है ?
महानतम
मैने बनाया तुझे
सृष्टि रक्षक
मत बन भक्षक
प्राणी जगत
सभी रचना मेरी
सिरमौर तू
मुखिया मुख जैसा
पोशण कर सदा ।

कविताई

कवि के संग कवित्व है ?
और कविता संग कविताई ? ?
कवि सम्मेलन के बाद
पूछ रहा एक वृद्ध की तरुणाई ।

कुण्डलियाँ यूँ बोलती है

-कुण्डलियाँ यूँ बोलती है-

1.
बेटा-बेटी एक सम, सौ प्रतिशत है सत्य ।
बेटा अब कमतर लगे, यह भी है कटु तथ्य ।।
यह भी है कटु तथ्य, उच्च शिक्षा वह छोड़े ।
अपने आप हताश, नशा से नाता जोड़े ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, हुआ वह अब सप्रेटा ।
बेटी के समकक्ष, लगे कमतर अब बेटा ।।
(सप्रेटा-मक्खन रहित दूध)

2.
दादा-दादी माँ-पिता, भैया-भाभी संग ।
चाचा-चाची और हैं, ज्यों फूलों का रंग ।।
ज्यों फूलों का रंग, बाग को बाग बनाते ।
सब नातों का साथ, एक परिवार कहाते ।।
सुन लो कहे ‘रमेश’, करें खुद से खुद वादा ।
एक रखें परिवार, रहे जिसमें जी दादा ।।

3.
अंधे-बहरे है नहीं, फिर भी रहते मौन ।
नशा नाश का मूल है, जाने यहाँ न कौन ।।
जाने यहाँ न कौन, जहर यह धीमा होता ।
मृत्यु पूर्व ही खाय, पीर सागर वह गोता ।।
सुनलो कहे ‘रमेश’, मूल हैं इसके गहरे ।
तोड़ों इसके जाल, रहो मत अंधे-बहरे ।।

4.
दुनिया सचमुच गोल है, जहाँ समय बलवान ।
कल दहेज के नाम पर, बेटी देती जान ।
बेटी देती जान, लोभियों के फंदों पर ।
बेटे जिंदा लाश, आज झूठे केसों पर ।।
देख रहा ‘चौहान’, आज कानूनी मुनिया ।
कैसे देती मात, गोल है सचमुच दुनिया ।।

5.
कहती शिक्षा स्कूल से, सुन लो मेरी बात ।
भेदभाव को छोड़कर, बांट ज्ञान सौगात ।।
बांट ज्ञान सौगात, लोग होवें संस्कारी ।
मैं तो नहीं बिकाऊ, बनो मत तुम व्यापारी ।।
तेरे इस करतूत, पीर मैं सहती रहती ।
मुझे न कर बदनाम, स्कूल से शिक्षा कहती ।।

6.
पैसा सबको चाहिये, जीवित रखने प्राण ।
काम हमें तो चाहिये, नहीं चाहिये दान ।।
नहीं चाहिये दान, निरिह ना हमें बनायें ।
हाथों में है जान, काम कुछ हमें बतायें ।।
पढ़ा लिखा ‘चौहान’, निठल्ला घूमे कैसे ।
काम बिना ना मान, चाहिये सबको पैसे ।।

7.
बेजाकब्जा गाँव में, गोचर बचा न शेष ।
ट्रेक्टर निगले बैल को, गौधन अब लवलेश ।।
गौधन अब लवलेश, पराली जले न कैसे ।
पर्यावरण वितान, रहे चाहे वह जैसे ।।
हैं बेखबर ‘रमेश’, करे वह केवल कब्जा ।
हर कारण के मूल, एक है बेजाकब्जा ।।

8.
मॉर्डन होने का चलन, तोड़ रहा परिवार ।
शिक्षित अरू धनवान ही, इसके सपनेकार ।।
इसके सपनेकार, बाप-माँ को हैं छोड़े ।
वृद्धाश्रम में छोड़, कर्तव्यों से मुख मोड़े ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, साक्ष्य हैं इसके वॉर्डन ।
मांगे जो अधिकार, वही बनते हैं मॉर्डन ।।


-रमेशकुमार सिंह चौहान

बच्चे समझ न पाय, दर्द जो मन हैं मेरे

मेरे घर संस्कार का,  टूट रहा दीवार ।

छद्म सोच के अस्त्र से, करे बच्चे प्रतिकार ।।

करे बच्चे प्रतिकार, कुपथ का बन सहचारी  ।

मौज मस्ती के नाम, बने ना कुछ व्यवहारी।।

हृदय रक्त रंजीत, कुसंस्कारों के घेरे ।

बच्चे समझ न पाय, दर्द जो मन हैं  मेरे ।।


-रमेश चौहान

राम राज में

एक घाट एक बाट, सिंह-भेड़  साथ-साथ,
रहते  थे जैसे पूर्व, रामजी के राज में  ।
शोक-रोग राग-द्वेश, खोज-खोज फिरते थे,
मिले ठौर बिन्दु सम,  अवध समाज में  ।।
दिन फिर फिर जावे,जन-जन साथ आवे
जाति-धर्म भेद टूटे, राम नाम  साज में ।
राम भक्त जान सके, और पहचान सके, 
राम राम कहलाते, अपने ही काज में  ।।

-रमेश चौहान 

नाहक करे बवाल

मंदिर मेरे गाँव का,
ढोये एक सवाल

पत्थर की यह मूरत पत्थर,
क्यों ईश्वर कहलाये
काले अक्षर जिसने जाना,
ढोंग इसे बतलाये

शंखनाद  के शोर से,
होता जिन्हें मलाल

देख रहा है मंदिर कबसे,
कब्र की पूजा होते
लकड़ी का स्तम्भ खड़ा है
उनके मन को धोते

प्रश्न वही अब खो गया,
करके नया कमाल

तेरे-मेरे करने वाले,
तन को एक बताये
मन में एका जो कर न सके
ज्ञानी वह कहलाये

सूक्ष्म बुद्वि तन कर खड़ा,
स्थूल चले है चाल

पूजा तो पूजा होती है,
भिन्न न इसको जानों
मन की बाते मन ही जाने,
आस्था इसको मानों

समझ सके ना बात जो,
नाहक करे बवाल

-रमेशकुमार सिंह चौहान

अपनी आँखों से दिखे,

अपनी आँखों से दिखे, दुनिया भर का चित्र ।
निज मुख दिखता है नहीं, तुम्ही कहो हे! मित्र ।
तुम्हीं कहो हे! मित्र, चेहरा मेरा कैसा ।
दुनिया से है भिन्न, या कि वैसा का वैसा ।।
बंधा पड़ा "रमेश", स्याह मन के काँखों से।
कैसे अंतस देह, पढ़े अपनी आँखों से ।।
-रमेश चौहन

मानववादी

गुरु साधन ईश्वर साध्य है, पथ पगडंडी धर्म ।
नश्वर मनुष्य साधक यहां, जिसके हाथों कर्म ।।

केवल परिचय देखकर, करते आप कमेंट ।
कुछ तो देखा कीजिये, रचना का कांटेंट ।।

अपने निज अभिमान को, माने श्वास समान ।
श्वास चले जीवित रहे, वरना मौत सुजान ।।

कर्म कली का कल्पतरु, सकल कामना लाय ।
सुयश कर्म ही धर्म है, अपयश धर्म नशाय ।।

नश्वर यह संसार है, नाशवान हर चीज ।
मैं मेरा का दंभ यह, लोभ मोह का बीज ।

दुखी सकल संसार है, केवल दुख का भेद।
वह तो धन का है दुखी, इसे रोग का खेद ।।

धर्म अटल अरु सत्य है, धर्म सत्य का नाम ।
मानवता सत्कर्म ही, इसकी निज पहचान ।

कल की बातें स्याह थीं, अब भी तो है स्याह ।
कल मुश्किल निर्वाह था, अब भी मुश्किल निर्वाह ।।

मानववादी का हुँकार जो, भरता है दिन रात ।
बात-बात में वर्ग भेद की, करता फिरता बात ।।

विपत काल पर मित्र का, संकट बेला भ्रात ।
धन हिनता पर पत्नि की, होते परख यथार्थ ।।

मातु-पिता को पालिये, मुझसे कहती है बहन ।
सास-ससुर के मान का, करती रहती जो दहन ।।

- रमेशकुमार सिंह चौहान

बहाने भी खूब सिखें हैं हम,






रात चाहे शरद का अमावस हो, भोर का पथ रोक नहीं सकता
लक्ष्य चाहे झुरमुटों में गुम हो, अर्जुन दृष्टि में धूल झोक नहीं सकता

ढूंढ़ने वाले बिखरे रेत क्या ढेर से भी सुई ढूंढ निकाल लेते हैं
बहाने भी खूब सिखें हैं हम, पत्थर पर कोई सिर ठोक नहीं सकता

-रमेश चौहान

जिंदगी और कुछ भी नहीं

जिंदगी और कुछ भी नहीं, बस एक बहती हुई नदी है
छल-छल, कल-कल, सतत् प्रवाहित होना गुण जिसका

सुख-दुख के तटबंधों से बंधी, जो अविरल गतिमान
पथ के हर बाधाओं को, रज-कण जो करती रहती

जीवन वेग कहीं त्वरित कहीं मंथर हो सकता है
पर प्रवाहमान प्राणपन जिसका केवल है पहचान

हौसलों के बाढ़ से बह जाते अवरोध तरु जड़ से
पहाड़ भी धूल धूसरित हो जाते इनसे टकरा कर

कभी टिप-टिप कभी झर-झर कभी उथली कभी गहरी
कभी पतली कभी मोटी रेखा धरा पर करती अंकित

जब मिट जाये इनकी धारा रेखा, बंद हो जाये चाल
नदी फिर नदी कहां अब, अब केवल पार्थिव देह

-रमेश चौहान

वो प्यार नहीं तो क्या था?

तेरे नैनों का निमंत्रण पाकर
मेरी धड़कन तुम्हारी हुई ।

मेरे नैना तुम्हारी अंखियों से,
पूछा जब एक सवाल
तुम में ये मेरा बिम्ब कैसा ?
पलकों के ओट पर छुपकर
वह बोल उठी- "मैं तुम्हारी दुलारी हुई ।"

नैनों की भाषा जुबा क्या समझे
कहता है ना तुझसे मेरा वास्ता
यह तकरार नहीं तो क्या था ?
नयनों ने फिर नैनों से पूछा
वो प्यार नहीं तो क्या था ??

-रमेश चौहान

आरक्षण सौ प्रतिशत करें

छोड़ बहत्तर सौ करें, आरक्षण है नेक ।
संविधान में है नहीं, मानव-मानव एक  ।।
मानव-मानव एक, कभी होने मत देना ।
बना रहे कुछ भेद, स्वर्ण से बदला लेना ।।
घुट-घुट मरे "रमेश",  होय तब हाल बदत्तर ।
मात्र स्वर्ण को छोड़, करें सौ छोड़ बहत्तर ।।

वेद

श्रीमुख से है जो निसृत,  कहलाता श्रुति वेद ।
मानव-तन में भेद क्या, नहीं जीव में भेद ।।
नहीं जीव में भेद,  सभी उसके उपजाये ।
भिन्न-भिन्न रहवास, भिन्न भोजन सिरजाये ।।
सबका तारणहार, मुक्त करते  हर दुख से ।
उसकी कृति है वेद, निसृत उनके श्रीमुख से ।।
-रमेश चौहान

मैं देश का (गंगोदक सवैया)

शान में मान में गान में प्राण में, जान लो मान लो  मात्र मैं देश का
ध्यान से ज्ञान स योग से भोग से, मूल्य मेरा बने वो सभी देश का ।
प्यार से  बांट के प्यार को प्यार दे, बांध मैं लिया डोर से देश को ।
जाति ना धर्म ना पंथ भी मैं नहीं, दे चुका हूँ इसे दान में देश को ।

-रमेश चौहान

हे सावन सुखधाम

सावन! तन से श्याम थे,
अब मन से क्यों श्याम

धरती शस्या तुम से होती,
नदियां गहरी-गहरी
चिड़िया चीं-चीं कलरव करती,
कुआँ-बावली अहरी ।
(अहरी=प्याऊ)

तुम तो जीवन बिम्ब हो,
तजते क्यों निज काम

धरती तुमसे जननी धन्या,
नीर सुधा जब लाये
भृकुटि चढ़ाये जब-जब तुम तो,
बंध्या यह कहलाये

हम धरती के जीवचर,
करते तुम्हें प्रणाम

तुम से जीवन नैय्या चलती,
तुम बिन खाये हिचकोले
नीर विहिन यह धरती कैसी,
जब रवि बरसाये गोले

कृपा दृष्टि अब कीजिये,
हे! सावन सुखधाम

हिन्दी श्लोक

आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है ।
पंचम लघु  राखो जी, चारो चरण बंद में ।।

छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में ।
निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।।

अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी ।
शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।।
-------------------------------

राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।

मेरा मान लिये जो तो,  देश ही परिवार है ।
अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।

सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से ।
अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।।

सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का ।
हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।

अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे ।
अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।।

अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला ।
अपनी कमजोरी को,  रखते हैं छुपा कर ।।

अपने घर में यारों,  गैरों का कुछ काम क्या ।
आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।।

होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं ।
राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से  मित्र भी  बड़ा ।।

भूमि अतिक्रमण का मार


नदियों पर ही बस गये, कुछ स्वार्थी इंसान ।
नदियां बस्ती में बही, रखने निज सम्मान ।।

जल संकट के मूल में, केवल हैं इंसान ।
जल के सारे स्रोत को, निगल रहे नादान ।।

कहीं बाढ़ सूखा कहीं, कारण केवल एक ।
अतिक्रमण तो भूमि पर, लगते हमको नेक ।।

गोचर गलियां गुम हुई, चोरी भय जल स्रोत ।
चोर पुलिस जब एक हो, कौन लगावे रोक ।।

जंगल नदियों से छिन रहे, हम उनके पहचान को ।
ये भी अब बदला ले रहे, तोड़ रहें इंसान को ।।

-रमेश चौहान

नारी पच्चीसा

नारी! देवी तुल्य हो, सर्जक पालक काल ।
ब्रह्माणी लक्ष्मी उमा, देवों का भी भाल ।।
देवों का भी भाल, सनातन से है माना ।
विविध रूप में आज, शक्ति  हमने पहचाना ।।
सैन्य, प्रशासन, खेल, सभी क्षेत्रों में भारी ।
राजनीति में दक्ष, उद्यमी भी है नारी ।।1।।

नारी का पुरुषार्थ तो, नर का है अभिमान ।
नारी करती आज है, कारज पुरुष समान ।।
कारज पुरुष समान, अकेली वह कर लेती ।
पौरूष बुद्धि विवेक, सफलता सब में  देती ।।
अनुभव करे "रमेश", नहीं कोई बेचारी ।
दिखती है हर क्षेत्र, पुरुष से आगे नारी ।।2।।

नारी जीवन दायिनी, माँ ममता का रूप ।
इसी रूप में पूजते, सकल जगत अरु भूप ।
सकल जगत अरु भूप, सभी कारज कर सकते ।
माँ ममता मातृत्व, नहीं कोई भर सकते ।।
सुन लो कहे "रमेश", जगत माँ पर बलिहारी ।
अमर होत नारीत्व, कहाती माँ जब नारी ।।3।।

नारी से परिवार है, नारी से संसार ।
नारी भार्या रूप में,  रचती है परिवार ।।
रचती है परिवार, चहेती पति का बनकर ।
ससुर ननद अरु सास, सभी नातों से छनकर ।।
तप करके तो आग, बने कुंदन गरहारी ।
माँ बनकर संसार, वंदिता है  वह नारी ।।4।।

नारी तू बलदायनी, सकल शक्ति का रूप ।
तू चाहे तो रंक कर, तू चाहे तो भूप ।।
तू चाहे तो भूप, प्रेम सावन बरसा के ।
चाहे कर दें रंक, रूप छल में झुलसा के  ।।
चाहे गढ़ परिवार, सास की बहू दुलारी ।
चाहे सदन उजाड़, आज की शिक्षित नारी ।।5।।

नारी करती काज सब, जो पुरुषों का काम ।
अपने बुद्धि विवेक से, करती है वह नाम ।।
करती है वह नाम, विश्व में भी बढ़-चढ़कर।
पर कुछ नारी आज, मध्य में है बस  फँसकर ।।
भूल काज नारीत्व, मात्र हैं इच्छाचारी ।
तोड़ रही परिवार, अर्ध शिक्षित कुछ नारी ।।6।।

नारी शिक्षा चाहिए, हर शिक्षा के साथ ।
नारी ही परिवार को, करती सदा सनाथ ।।
करती सदा सनाथ, पतोहू घर की बनकर ।
गढ़ती है परिवार, प्रेम मधुरस में सनकर ।।
पति का संबल पत्नि, बुरे क्षण में भी प्यारी ।
एक लक्ष्य परिवार, मानती है सद नारी ।।7।।

नारी यदि नारी नहीं, सब क्षमता है व्यर्थ ।
नारी में नारीत्व का, हो पहले सामर्थ्य ।।
हो पहले सामर्थ्य, सास से मिलकर रहने ।
एक रहे परिवार, हेतु इसके दुख सहने ।।
नर भी तो कर लेत, यहाँ  सब दुनियादारी ।
किन्तु  नार के काज, मात्र कर सकती नारी ।।8।।

नारी ही तो है बहू, नारी ही तो सास ।
पांचाली सम हो बहू, कुंंती जैैैैसे सास ।।
कुंती जैसे सास, साथ दुख-सुख में रहती ।
साधे निज परिवार, साथ पति के सब सहती ।।
सहज बने हर सास, बहू की भी हो प्यारी  ।
सच्चा यह सामर्थ्य, बात समझे हर नारी ।।9।।

नारी आत्म निर्भर हो, होवे सुदृढ़ समाज ।
पर हो निज नारीत्व पर, हर नारी को नाज ।।
हर नारी को नाज, होय नारी होने पर।
ऊँचा समझे भाल, प्रेम ममता बोने पर ।।
रखे मान सम्मान, बने अनुशीलन कारी ।
घर बाहर का काम, आज करके हर नारी ।।10।।

नारी अब क्यों बन रही,  केवल पुरुष समान ।
नारी के रूढ़ काम को, करते पुरुष सुजान ।।
करते पुरुष सुजान,  पाकशाला में चौका ।
फिर भी  होय न पार, जगत में जीवन नौका ।।
नारी खेवनहार, पुरुष का जग मझधारी ।
समझें आज महत्व, सभी वैचारिक नारी ।।11।।

नारी है माँ रूप में,  जीवन के आरंभ ।
माँ की ममता पाल्य है, हर जीवन का दंभ ।।
हर जीवन का दंभ, प्रीत बहना की होती ।
पत्नि पतोहू प्यार,  सृष्टि जग जीवन बोती ।
सहिष्णुता का सूत्र,  मंत्र केवल उपकारी
जीवन का आधार, जगत में केवल नारी ।।12।।

नारी का नारीत्व ही, माँ ममता मातृत्व ।
नारी का नारीत्व बिन,  शेष कहाँ अस्तित्व ।
शेष कहाँ अस्तित्व, पुरुष ही हो यदि नारी ।
नारी से परिवार,  बात समझो मतवारी ।।
नारी नर से श्रेष्ठ, जगत में जो संस्कारी ।
गढ़े सुदृढ़ परिवार, आत्म बल से हर नारी ।।13।।

नारी का संतान को,  जनना नहीं पर्याप्त ।
नारी को परिवार में, होना होगा व्याप्त ।
होना होगा व्याप्त, वायु परिमण्डल जैसे ।
तन में जैसे रक्त, प्रवाहित हो वह वैसे ।।
अपने निज परिवार, निभाकर नातेदारी ।
सफल होय ससुराल, अहम तज कर हर नारी ।।14।।

नारी नर हर काम को,  करते एक समान ।
चाहे घर का काम हो, चाहे बाहर स्थान  ।।
चाहे बाहर स्थान, युगल जोड़ी कर सकते ।
किंतु पुरुष परिवार, कभी भी ना गढ़ सकते ।।
नारी ही परिवार, पुरुष इस पर बलिहारी ।
नारी नर का द्वंद, चलें तज कर नर नारी ।।15 ।।

नारी निज महत्व को, तनिक न्यून ना मान ।
नारी, नर सहगामनी, ज्यों काया में प्राण ।।
ज्यों काया में प्राण, ज्योति से ही ज्यों नैना।
सृष्टि मूल परिवार, आप करतीं उसको पैना ।।
विनती करे ‘रमेश’, बनें जीवन सहचारी ।
जीवन को गतिमान, मात्र कर सकती नारी ।।16।।

नारी का है मायका, नारी का ससुराल ।
नारी दोनों वंश की, रखती हरदम ख्याल ।।
रखती हरदम ख्याल, पिता पति की बन पगड़ी ।
चाहे हो दुख क्लेश, बने वह संबल तगड़ी ।।
छोड़-छाड़ परिवार, बने जो बस व्यभिचारी ।
छोड़ रखे जो लाज, भला वह कैसी नारी ।।17।।

नारी का ससुराल में, अजर अमर सम्मान ।
कुछ-कुछ नारी आज के, दिखा रही है शान ।।
दिखा रही है शान, मायका जाये बैठे ।
मांग गुजारा खर्च, सास पति से ही ऐंठे ।।
पूछे प्रश्न "रमेश", मात्र पैसा है भारी  ।
पाहन दंड समान,  प्रेम बिनु नर अरु नारी ।।18।।

नारी ऐसी एक वह, जब आई ससुराल ।
कछुक दिवस के बाद ही, कर बैठी हड़ताल ।
कर बैठी हड़ताल, अलग घर में है रहना ।
सास ससुर का झेल, तनिक ना मुझको सहना ।।
क्या करता वह लाल, चले उसके अनुहारी ।
मगर दिवस कुछु बाद, मायका बैठी नारी ।।19।।

नारी पहुंची कचहरी, अपनी रपट लिखाय ।
तलब किए तब कोर्ट ने, पति को लियो बुलाय ।।
पति को लियो बुलाय, कोर्ट ने दी समझाइश ।
रह लो दोनों साथ, पूछ कर उनकी ख्वाहिश।।
फिर से दोनों साथ , रहे कुछ ही दिन चारी ।
फिर से एक बार, शिकायत की वह नारी ।।20।।

नारी की सुन शिकायत, छाती पर रख हाथ ।
चले पत्नी के मायका, रहने उनके साथ ।।
रहने उनके साथ, लगे वह वहीं कमाने ।
फिर भी उनकी पत्नी, रहे ना साथ सुहाने ।।
नोकझोंक के फेर, पुरुष कुछ गलत विचारी ।
तज दूँ मैं निज प्राण, मुक्त होगी यह नारी ।।21।।

नारी के इस करतूत से, लज्जित थी नर नार ।
देव कृपा से पुरुष  वह, जीवित है संसार ।।
जीवित है संसार, मात्र जीवित ही रहने ।
उनके सुत है एक, आजतो वियोग सहने ।।
सुन लो कहे "रमेश", पुरुष  वह सदव्यवहारी ।
पर कुछ समझ न आय, खपा क्यों उनकी नारी ।।22।।

नारी हित कानून कुछ, बना रखे सरकार ।
पर कुछ नारी कर रहीं, इस पर अत्याचार ।।
इस पर अत्याचार, केस झूठे ही करके ।
बात बात पर बात, लाख झूठे ही भरके ।।
माने खुद को श्रेष्ठ, आज कुछ इच्छाचारी ।
नारी को बदनाम, आज करती कुछ नारी ।।23।।

नारी ही बेटी-बहू, नारी ही माँ-सास ।
इनसे ही भरते तमस, इनसे भरे उजास ।
इनसे भरे उजास, शांति सुख समृद्धि घर में ।
कुछ नारी का दम्भ, उजाड़े घर पल भर में ।।
हे बेटी की मात !, मानिये जिम्मेदारी ।
अरी बहू की सास, बहू तुम सम है नारी ।।24।।

नारी के इस द्वन्द में, पुरूष मात्र लाचार ।
दोषी नर यदि सैकड़ा, दोषी नार हजार ।।
दोषी नार हजार, दोष अपना ना माने ।
टूट रहे परविर, श्रेष्ठ अपने को जाने ।।
नारी यहाँ करोड़, आज भी मंगलकारी ।
घर-घर का आधार, आदि से अबतक नारी ।।25।।

क्या बदला जीवन में

धरती सूूूूरज चांंद सितारे, अरु जीवोंं का देेेेह ।
देेेख रहा हूँ जब सेे जीवन, एक रूप अरु नेेेह ।।

माँ की ममता प्यार बाप का, समरस मैंने पाया ।
मुझ पर उनकी चिंता समरस, जब से मुझको जाया ।।

मेरे जीवन में सुख-दुख क्रम, दिवस-निशा क्रम के जैसे ।
कल भी सुख-दुख था जीवन में, अब भी वैसे के वैसे ।।

भूख-प्यास शाश्वत काया का, मैंने जीवन में पाया ।
मेरे तन के चंचल मन को, राग-द्वेष ने भरमाया ।।

तन कद-काठी बदल गया पर, बदली न हाथ की रेखा ।
अंतस की सारी चीजों को, मैंने ज्यों का त्यों देखा ।।

-रमेश चौहान

देशप्रेम सबसे प्रथम

देशप्रेम सबसे प्रथम, बाकी मुद्दे बाद में ।
बलिदानी इस देश के, बोल रहे हैं याद में ।।
प्राण दिये हैं हम यहाँ, एक आश विश्वास में ।
अखिल हिन्द सब एक हो, देशभक्ति की प्यास में ।।
वह बलिदानी आपसे, माँग रहा बलिदान है ।
सुख का लालच छोड़ कर, करना अब मतदान है ।।
-रमेश चौहान

अभिनंदन नूतन वर्ष

अभिनंदन नववर्ष
(दुर्मिल सवैया )

अभिनंदन  पावन वर्ष नया
दुख नाशक हो सुख ही करिये ।
नव भाग्य रचो शुभ कर्म कसो
सब दीनन के घर श्री धरिये ।
परिवार सभी परिवार  बने
मन द्वेष पले उनको हरिये ।
जग श्री शुभ मंगलदायक हो
सुख शांति चराचर में  भरिये ।।

-रमेश चौहान

चुनावी दोहा

देश होत है लोग से, होत देश से लोग ।
देश भक्ति निर्लिप्त है, नहीँ चुनावी भोग ।।

गर्व जिसे ना देश पर, करते खड़ा सवाल ।
जिसके बल पर देश में , दिखते नित्य बवाल ।।

वक्त यही बदलाव का, बनना चौकीदार ।
नंगे-लुच्चे इस समय, पहुँचे मत दरबार ।।

लोकतंत्र में मतदाता ही, असली चौकीदार ।
स्वार्थी लोभी नेताओं को, करे बेरोजगार ।।

देख घोषणा पत्र यह, रिश्वत से ना भिन्न ।
मुफ्तखोर सब लोग हैं, जो इससे ना खिन्न ।।

मुफ्त बांटना क्यों भला, हमें दीजिये काम ।
मैं भी तो जीवित रहूँ, रहे आत्म सम्मान ।।

लोभ मोह को छोड़कर, करना है मतदान ।
देश शक्तिशाली बने, बढ़े आत्म सम्मान ।।


चुनावी सजल

सुई रेत में गुम हो गई , सत्य चुनावी घोष में,
कौन कहां अब ढूँढे उसे, बुने हुये गुण-दोष में ।

भाग्य विधाता बनने चले, बैठ ऊँट की पीठ पर,
चना-चबेना खग-मृग हेतु, छिड़क रहें उद्घोष में ।

जाल बिछाये छलबल लिये, दाने डाले बोल के
देख प्रतिद्वंदी वह सजग, लाल दिखे है रोष में ।

बने आदमी यदि आदमी, अपने को पहचान कर
रत्न ढूँढ लेवे सिंधु से, मिथक तोड़ संतोष में ।

लोभ मोह के झाँसा फँसे, अपने को ही भूल कर 
पत्थर पाकर प्रसन्न रहे, अवसर के इस कोष में ।।

-रमेश चौहान

बढ़ो तुम देखा-देखी

देखा-देखी से जगत, आगे बढ़ते लोग ।
अगल-बगल को देखकर, बढ़े जलन का रोग ।
बढ़े जलन का रोग, करे मन ऐसा करना ।
करके वैसा काम, सफलता का पथ गढ़ना ।
सुन लो कहे रमेश, छोड़ कर अपनी  सेखी ।
करलो खुद  कुछ काम, बढ़ो तुम देखा-देखी ।।

सबूत चाहिये

मांगे आज सबूत, करे जो शोर चुनावी ।
सोच रहा है देश, हुआ किसका बदनामी ।।
देख नियत पर खोट, नियत अपना ना देखे ।
निश्चित ये करतूत, शत्रु ने हाथ समेखे ।
प्रमाण-पत्र देश-प्रेम का , तुझे अन्य से ना चाहिये ।
किन्तु हमें तो तुमसे सही, इसका इक सबूत चाहिये ।।

कल की बातें छोड़, आज का ही दिखलाओ ।
देख रहा जो देश,  देश को ही बतलाओ ।।
कल की वह हर बात, दिखे जो तुम दिखलाये ।
सच है  या झूठ,  कौन  हमको बतलाये ।।
पीढी ठहरे हम आज के, देख रहे हैं हम आज को ।
लोकतंत्र का सजग प्रहरी, देखे प्रतिनिधि के काज को ।।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

नेता देते चोट

देश  विरोधी बात  पर,  करे कौन है  वोट ।
जिसे रिझाने देश को, नेता  देते  चोट  ।।
नेता  देते  चोट,  शत्रु  को  बाँहें डाले ।
व्यर्थ-व्यर्थ  के  प्रश्न, देश में खूब  उझाले ।।
रोये देख "रमेश ",  लोग  कुछ हैं  अवरोधी ।
देना  उसको चोट,  बचे ना देश विरोधी  ।।

- रमेश  चौहान

चिंतन के दोहे

मंगलमय हो दिन आपका, कृपा करे तौ ईष्ट ।
सकल मनोरथ पूर्ण हो, जो हो हृदय अभिष्ट ।।

जीवन दुश्कर मृत्यु से, फिर भी जीवन श्रेष्ठ ।
अटल मृत्यु को मान कर, जीना हमें यथेष्ठ ।।

एक ध्येय पथ एक हो, एक राष्ट्र निर्माण ।
एक धर्म अरु कर्म के, धारें तीर कमान ।।

कर्म आज का होत है, कल का तेरा भाग्य ।
निश्चित होता कर्म फल, गढ़ ले निज सौभाग्य ।।

दिवस निशा बिन होत ना, निशा दिवस का मूल ।
नित्य नियत निज कर्म कर, किये बिना कुछ भूल ।

साथ समय चलता नहीं, हमको चलना साथ ।
साथ समय के जो चले, उनके ऊँचे माथ ।।

अग्नी है ज्यों काष्ठ में, जीवन में है काल ।
ध्येय मुक्ति का पथ जगत, करना नहीं मलाल ।।

राष्ट्रधर्म ही धर्म है, मेरा अपना धर्म ।
मातृभूमि रक्षा हेतु, मरना मेरा कर्म ।।

आँख खोल कर देखिये, सपने कई हजार ।
लक्ष्य मान कर दौड़िये, करने को साकार ।

न्याय-न्याय लगता नहीं, होय न्याय में देर ।
वर्षों तक कुचले दबे, बनकर केवल ढेर ।।

शिक्षा का उद्देश्य क्या, पढ़े-लिखों की भीड़ ।
दाना मुँह न डाल सके, बुन न सके वह नीड़ ।।

नाव डूब जाता यथा, नाव चढ़े जब नीर ।
गर्व चढ़े जब देह पर, डूब जात मतिधीर ।।


-रमेशकुमार सिंह चौहान

चुनावी होली

चुनावी होली
(सरसी छंद)

जोगीरा सरा ररर रा
वाह खिलाड़ी वाह.

खेल वोट का अजब निराला, दिखाये कई रंग ।
ताली दे-दे जनता हँसती, खेल देख बेढंग ।।
जोगी रा सरा ररर रा, ओजोगी रा सरा ररर रा

जिनके माथे हैं घोटाले, कहते रहते चोर ।
सत्ता हाथ से जाती जब-जब, पीड़ा दे घनघोर ।।
जोगी रा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

अंधभक्त जो युगों-युगों से, जाने इक परिवार ।
अंधभक्त का ताना देते, उनके अजब विचार ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

बरसाती मेढक दिखते जैसे, दिखती है वह नार ।
आज चुनावी गोता खाने, चले गंग मजधार ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

मंदिर मस्जिद माथा टेके, दिखे छद्म निरपेक्ष।
दादा को बिसरे बैठे,  नाना के सापेक्ष ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

दूध पड़े जो मक्खी जैसे, फेक रखे खुद बाप ।
साथ बुआ के निकल पड़े हैं, करने सत्ता जाप ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा


इक में माँ इक में मौसी, दिखती ममता प्यार ।
कोई कुत्ता यहाँ न भौके, कहती वह ललकार ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

मफलर वाले बाबा अब तो, दिखा रहे हैं प्यार ।
जिससे लड़ कर सत्ता पाये, अब उस पर बेजार ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

पाक राग में राग मिलाये, खड़ा किये जो प्रश्न ।
एक खाट पर मिलकर बैठे, मना रहे हैं जश्न ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा


नाम चायवाला था जिनका, है अब चौकीदार ।
उनके सर निज धनुष चढ़ाये, उस पर करने वार ।।
जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा

-रमेशकुमार सिंह चौहान

अपनों को ही ललकारो

जो पाले अलगाववाद को, उसको हमने ही पाला ।
झांके ना घर के भेदी को, जपे दूसरों की माला ।।
पाल हुर्रियत मुसटंडों को, क्यों अश्रु बहाते हो ।
दोष दूसरों को दे देकर, हमकों ही बहकाते हो ।।
राजनीति के ढाल ओढ़ कर, बुद्धिमान कहलाते हो।
इक थैली के चट्टे-बट्टे, जो सरकार बनाते हो ।।
आतंकी के जो सर्जक पालक, उनको ही पहले मारो ।
निश्चित ही आतंक खत्म हो, अपनों को ही ललकारो ।।
घास डालना बंद करो अब, जयचंदों को पहचानों ।
नहीं पाक में दम है इतना, बैरी इसको ही जानों ।।
-रमेश चौहान

है मेरी भी कामना

//दोहा गीत//

है मेरी भी कामना, करूँ हाथ दो चार ।
उर पर चढ़ कर शत्रु के, करूँ वार पर वार ।।
लड़े बिना मरना नहीं, फँसकर उनके जाल ।
छद्म रूप में शत्रु बन, चाहे आवे काल ।।
लिखूँ काल के भाल पर, मुझे देश से प्यार ।
है मेरी भी कामना ..........

बुजदिल कायर शत्रु हैं, रचते जो षडयंत्र ।
लिये नहीं हथियार पर, गढ़ते रहते तंत्र ।।
बैरी के उस बाप का, सुनना अब चित्कार ।
है मेरी भी कामना.......

मातृभूमि का मान ही, मेरा निज पहचान ।
मातृभूमि के श्री चरण, करना अर्पण प्राण ।।
बाल न बाका होय कछु, ऐसा करूँ विचार ।
है मेरी भी कामना.....

-रमेशकुमार सिंह चौहान

सबसे गंदा खेल है, राजनीति का खेल

ऐसा कैसे हो रहा, जो मन रहे उदास ।
धर्म सनातन सत्य है, नहीं अंधविश्वास ।।
नहीं अंधविश्वास, राम का जग में होना ।
मुगल आंग्ल का खेल, किये जो जादू-टोना ।।
खड़ा किये जो प्रश्न, धर्म आस्था है कैसा ।
ज्यों काया में प्राण, धर्म आस्था है ऐसा ।।

सबसे गंदा खेल है, राजनीति का खेल ।
करने देते हैं नहीं, इक-दूजे को मेल ।।
इक-दूजे को मेल, नहीं क्यों करने देते ।
करों बांट कर राज, यही शिक्षा जो लेते ।।
विश्व एक परिवार, जिसे लगता है फंदा ।
राजनीति का खेल, खेल है सबसे गंदा ।।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

प्रियतम प्रीत तुम्हारी

उपासना है आराधना भी, प्रियतम प्रीत तुम्हारी ।
सुमन  सुगंधी सम अनुबंधित, प्रियतम प्रीत तुम्हारी ।।
ध्रुव तारा सम अटल गगन पर, प्रियतम प्रीत तुम्हारी ।।
प्राण देह में ज्यों पल्लवित, प्रियतम प्रीत तुम्हारी ।।

Blog Archive

Popular Posts

Categories