एक कुशल माली
बेटी की पौध
रोपते जतन से
पल्लवित होकर
नन्ही सी पौध
अटखेलियां करे
गुनगुनाती हुई
पुष्पित होती
महके चारो ओर
करे जतन
तोड़े ना कोई चोर
जग बगिया
बेटी जिसकी शोभा
गढ़े गौरव गाथा ।
Ramesh Kumar Chauhan
विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।
Manwata kaha hai ?
AAPNI AAKHO SE DEKHO
MAI DESH KA ..
मेरे घर संस्कार का, टूट रहा दीवार ।
छद्म सोच के अस्त्र से, करे बच्चे प्रतिकार ।।
करे बच्चे प्रतिकार, कुपथ का बन सहचारी ।
मौज मस्ती के नाम, बने ना कुछ व्यवहारी।।
हृदय रक्त रंजीत, कुसंस्कारों के घेरे ।
बच्चे समझ न पाय, दर्द जो मन हैं मेरे ।।
-रमेश चौहान
जिंदगी और कुछ भी नहीं, बस एक बहती हुई नदी है
छल-छल, कल-कल, सतत् प्रवाहित होना गुण जिसका
सुख-दुख के तटबंधों से बंधी, जो अविरल गतिमान
पथ के हर बाधाओं को, रज-कण जो करती रहती
जीवन वेग कहीं त्वरित कहीं मंथर हो सकता है
पर प्रवाहमान प्राणपन जिसका केवल है पहचान
हौसलों के बाढ़ से बह जाते अवरोध तरु जड़ से
पहाड़ भी धूल धूसरित हो जाते इनसे टकरा कर
कभी टिप-टिप कभी झर-झर कभी उथली कभी गहरी
कभी पतली कभी मोटी रेखा धरा पर करती अंकित
जब मिट जाये इनकी धारा रेखा, बंद हो जाये चाल
नदी फिर नदी कहां अब, अब केवल पार्थिव देह
-रमेश चौहान
तेरे नैनों का निमंत्रण पाकर
मेरी धड़कन तुम्हारी हुई ।
मेरे नैना तुम्हारी अंखियों से,
पूछा जब एक सवाल
तुम में ये मेरा बिम्ब कैसा ?
पलकों के ओट पर छुपकर
वह बोल उठी- "मैं तुम्हारी दुलारी हुई ।"
नैनों की भाषा जुबा क्या समझे
कहता है ना तुझसे मेरा वास्ता
यह तकरार नहीं तो क्या था ?
नयनों ने फिर नैनों से पूछा
वो प्यार नहीं तो क्या था ??
-रमेश चौहान
छोड़ बहत्तर सौ करें, आरक्षण है नेक ।
संविधान में है नहीं, मानव-मानव एक ।।
मानव-मानव एक, कभी होने मत देना ।
बना रहे कुछ भेद, स्वर्ण से बदला लेना ।।
घुट-घुट मरे "रमेश", होय तब हाल बदत्तर ।
मात्र स्वर्ण को छोड़, करें सौ छोड़ बहत्तर ।।
श्रीमुख से है जो निसृत, कहलाता श्रुति वेद ।
मानव-तन में भेद क्या, नहीं जीव में भेद ।।
नहीं जीव में भेद, सभी उसके उपजाये ।
भिन्न-भिन्न रहवास, भिन्न भोजन सिरजाये ।।
सबका तारणहार, मुक्त करते हर दुख से ।
उसकी कृति है वेद, निसृत उनके श्रीमुख से ।।
-रमेश चौहान
शान में मान में गान में प्राण में, जान लो मान लो मात्र मैं देश का ।
ध्यान से ज्ञान से योग से भोग से, मूल्य मेरा बने वो सभी देश का ।
प्यार से बांट के प्यार को प्यार दे, बांध मैं लिया डोर से देश को ।
जाति ना धर्म ना पंथ भी मैं नहीं, दे चुका हूँ इसे दान में देश को ।
-रमेश चौहान
सावन! तन से श्याम थे,
अब मन से क्यों श्याम
धरती शस्या तुम से होती,
नदियां गहरी-गहरी
चिड़िया चीं-चीं कलरव करती,
कुआँ-बावली अहरी ।
(अहरी=प्याऊ)
तुम तो जीवन बिम्ब हो,
तजते क्यों निज काम
धरती तुमसे जननी धन्या,
नीर सुधा जब लाये
भृकुटि चढ़ाये जब-जब तुम तो,
बंध्या यह कहलाये
हम धरती के जीवचर,
करते तुम्हें प्रणाम
तुम से जीवन नैय्या चलती,
तुम बिन खाये हिचकोले
नीर विहिन यह धरती कैसी,
जब रवि बरसाये गोले
कृपा दृष्टि अब कीजिये,
हे! सावन सुखधाम ।
आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है ।
पंचम लघु राखो जी, चारो चरण बंद में ।।
छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में ।
निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।।
अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी ।
शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।।
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राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।
मेरा मान लिये जो तो, देश ही परिवार है ।
अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।
सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से ।
अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।।
सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का ।
हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।
अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे ।
अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।।
अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला ।
अपनी कमजोरी को, रखते हैं छुपा कर ।।
अपने घर में यारों, गैरों का कुछ काम क्या ।
आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।।
होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं ।
राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से मित्र भी बड़ा ।।
नदियों पर ही बस गये, कुछ स्वार्थी इंसान ।
नदियां बस्ती में बही, रखने निज सम्मान ।।
जल संकट के मूल में, केवल हैं इंसान ।
जल के सारे स्रोत को, निगल रहे नादान ।।
कहीं बाढ़ सूखा कहीं, कारण केवल एक ।
अतिक्रमण तो भूमि पर, लगते हमको नेक ।।
गोचर गलियां गुम हुई, चोरी भय जल स्रोत ।
चोर पुलिस जब एक हो, कौन लगावे रोक ।।
जंगल नदियों से छिन रहे, हम उनके पहचान को ।
ये भी अब बदला ले रहे, तोड़ रहें इंसान को ।।
-रमेश चौहान
धरती सूूूूरज चांंद सितारे, अरु जीवोंं का देेेेह ।
देेेख रहा हूँ जब सेे जीवन, एक रूप अरु नेेेह ।।
माँ की ममता प्यार बाप का, समरस मैंने पाया ।
मुझ पर उनकी चिंता समरस, जब से मुझको जाया ।।
मेरे जीवन में सुख-दुख क्रम, दिवस-निशा क्रम के जैसे ।
कल भी सुख-दुख था जीवन में, अब भी वैसे के वैसे ।।
भूख-प्यास शाश्वत काया का, मैंने जीवन में पाया ।
मेरे तन के चंचल मन को, राग-द्वेष ने भरमाया ।।
तन कद-काठी बदल गया पर, बदली न हाथ की रेखा ।
अंतस की सारी चीजों को, मैंने ज्यों का त्यों देखा ।।
-रमेश चौहान
अभिनंदन नववर्ष
(दुर्मिल सवैया )
अभिनंदन पावन वर्ष नया
दुख नाशक हो सुख ही करिये ।
नव भाग्य रचो शुभ कर्म कसो
सब दीनन के घर श्री धरिये ।
परिवार सभी परिवार बने
मन द्वेष पले उनको हरिये ।
जग श्री शुभ मंगलदायक हो
सुख शांति चराचर में भरिये ।।
-रमेश चौहान
देश विरोधी बात पर, करे कौन है वोट ।
जिसे रिझाने देश को, नेता देते चोट ।।
नेता देते चोट, शत्रु को बाँहें डाले ।
व्यर्थ-व्यर्थ के प्रश्न, देश में खूब उझाले ।।
रोये देख "रमेश ", लोग कुछ हैं अवरोधी ।
देना उसको चोट, बचे ना देश विरोधी ।।
- रमेश चौहान
//दोहा गीत//
है मेरी भी कामना, करूँ हाथ दो चार ।
उर पर चढ़ कर शत्रु के, करूँ वार पर वार ।।
लड़े बिना मरना नहीं, फँसकर उनके जाल ।
छद्म रूप में शत्रु बन, चाहे आवे काल ।।
लिखूँ काल के भाल पर, मुझे देश से प्यार ।
है मेरी भी कामना ..........
बुजदिल कायर शत्रु हैं, रचते जो षडयंत्र ।
लिये नहीं हथियार पर, गढ़ते रहते तंत्र ।।
बैरी के उस बाप का, सुनना अब चित्कार ।
है मेरी भी कामना.......
मातृभूमि का मान ही, मेरा निज पहचान ।
मातृभूमि के श्री चरण, करना अर्पण प्राण ।।
बाल न बाका होय कछु, ऐसा करूँ विचार ।
है मेरी भी कामना.....
-रमेशकुमार सिंह चौहान
अटल अटल है आपका, ध्रुव तरा सा नाम । बोल रहा हर गांव में, पहुंच सड़क का काम ।। जोड़ दिए हर गांव को, मुख्य सड़क के साथ। गांव शहर से जब जुड़ा...