एक गौरैया एक मनुज से कहती है ये बोल,
हे बुद्विमान प्राणी हमारे जीवन का क्या है मोल ।
अपने हर प्रगति को अब तो जरा लो तोल,
सृष्टि के कण-कण में दिया है तूने विष घोल ।
क्या हम नही कर सकते कल कल्लोल,
क्यो हो रही हमारी नित्य क्रिया कपोल ।
इस सृष्टि में क्या हम नही सकते हिल-डोल,
हे मनुज अब तो अपना मनुष्यता का पिटारा खोल ।
जो तेरा है वो मेरा भी है सारा सृष्टि-खगोल,
फिर क्यो बिगाड़ते रहे हो हमारा भूगोल ।
हे बुद्विमान प्राणी हमारे जीवन का क्या है मोल ।
अपने हर प्रगति को अब तो जरा लो तोल,
सृष्टि के कण-कण में दिया है तूने विष घोल ।
क्या हम नही कर सकते कल कल्लोल,
क्यो हो रही हमारी नित्य क्रिया कपोल ।
इस सृष्टि में क्या हम नही सकते हिल-डोल,
हे मनुज अब तो अपना मनुष्यता का पिटारा खोल ।
जो तेरा है वो मेरा भी है सारा सृष्टि-खगोल,
फिर क्यो बिगाड़ते रहे हो हमारा भूगोल ।
0 Comments:
एक टिप्पणी भेजें